श्रीनारायण बोले- हे नारद! अब मैं सूर्यकी उत्तम गतिका वर्णन करूँगा । शीघ्र, मन्द गतियोंके द्वारा सूर्यका गमन होता है ॥ 1 ॥
हे सुरश्रेष्ठ! सभी ग्रहोंके तीन ही स्थान हैं। वे स्थान हैं— जारद्गव, ऐरावत तथा वैश्वानर; जिनमें जारद्गव मध्यमें, ऐरावत उत्तरमें तथा वैश्वानर दक्षिणमें यथार्थतः निर्दिष्ट किये गये हैं ॥ 2-3 ॥अश्विनी, भरणी और कृत्तिकाको नागवीथी कहा जाता है। रोहिणी, मृगशिरा और आर्द्राको गजवीथी कहा जाता है। इसी प्रकार पुनर्वसु, पुष्य और अश्लेषाको ऐरावती-279वीथी कहा गया है। ये तीनों वीथियाँ उत्तरमार्ग कही गयी हैं ।। 3-46 ॥
मघा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनीको आर्षभी वीथी माना गया है। हस्त, चित्रा तथा स्वातीको गोवीथी कहा गया है और इसी प्रकार ज्येष्ठा, विशाखा तथा अनुराधाको जारद्गवीवीथी कहा गया है। इन तीनों वीथियोंको मध्यममार्ग कहा जाता है ।। 5-6 ॥
मूल, पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ अजवीथी नामसे पुकारी जाती है। श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषाको मार्गीवीथी कहा जाता है और इसी तरह पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती वैश्वानरीवीथीके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये तीनों वीथियाँ दक्षिणमार्ग कही जाती हैँ ।। 7-86 ।।
जब सूर्यका रथ उत्तरायण मार्गपर रहता है, उस समय उसके दोनों पहियेके अक्षोंसे आबद्ध पवनरूपी पाशसे बँधकर ध्रुवद्वारा उसका कर्षण 'आरोहण' कहा गया है। उस समय मण्डलके भीतर रथ चलनेसे गतिकी मन्दता हो जाती है। हे सुरश्रेष्ठ! इस मन्द गतिमें दिनकी वृद्धि और रातका ह्रास होने लगता है। यही सौम्यायनका क्रम है। इसी प्रकार जब वह रथ दक्षिणायन मार्गपर पाशद्वारा खींचा जाता है, तब वह अवरोहण गति होती है। उस समय मण्डलके बाहरसे गति होनेके कारण सूर्यकी गतिमें तीव्रता हो जाती है। उस समय दिनका छोटा तथा रातका बड़ा होना बताया गया है । ll 9 - 123॥
विषुव मार्गपर सूर्यका रथ पाशद्वारा किसी ओर न खींचे जानेके कारण साम्य स्थिति बनी रहती है। | इसमें मण्डलके मध्यसे गति होनेसे दिन तथा रातके मानमें समानता होती है ॥ 133 ॥
जब ध्रुवकी प्रेरणासे दोनों वायुपाश खींचे जाते हैं, उस समय भीतरके मण्डलोंमें ही सूर्य चक्कर लगाते हैं। पुनः ध्रुवके द्वारा दोनों पाशोंके मुक्त किये जाते ही सूर्य बाहरके मण्डलोंमें चक्कर लगाने लगते हैं ।। 14-153 ।।उस मेरुपर्वतपर पूर्वभागमें इन्द्रकी पुरी 'देवधानिका' और दक्षिणभागमें यमराजकी 'संयमनी' नामक विशाल पुरी विद्यमान है। पश्चिममें वरुणदेवकी 'निम्लोचनी' नामक महान् पुरी है और उस मेरुके उत्तर-भागमें चन्द्रमाकी 'विभावरी' नामक पुरी बतायी गयी है ॥ 16-176 ॥
ब्रह्मवादियोंके द्वारा कहा गया है कि सूर्यका उदय इन्द्रकी पुरीमें होता है और वे मध्याह्नकालमें संयमनीपुरीमें पहुँचते हैं। सूर्यके निम्लोचनीपुरीमें पहुँचनेपर सायंकाल और विभावरीपुरीमें पहुँचनेपर आधी रात होती है। वे भगवान् सूर्य सभी देवताओंके पूज्य हैं ॥ 18-19॥ हे मुने! सुमेरुपर्वतके चारों ओर सूर्यके जिस परिभ्रमणसे जीवधारियोंकी सभी क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, उसका वर्णन मैंने कर दिया ॥ 20 ॥
सुमेरुपर रहनेवालोंको सदा मध्यमें विराजमान प्रतीत होते हैं। सूर्यका रथ सुमेरुके बायें चलते हुए वायुकी प्रेरणासे दायें जाता है। अतः उदय तथा अस्त समयोंमें सर्वदा वह सामने ही पड़ता है। हे देवर्षे! सभी दिशाओं तथा विदिशाओंमें रहनेवाले जो लोग सूर्यको जहाँ देखते हैं, उनके लिये वह सूर्योदय | तथा जहाँ सूर्य छिप जाते हैं, वहाँके लोगोंके लिये | वह सूर्यास्त माना गया है। सर्वदा विद्यमान रहनेवाले सूर्यका न तो उदय होता है और न अस्त ही होता है, उनका दर्शन तथा अदर्शन ही उदय और अस्त नामसे कहा गया है ॥ 21 - 24 ॥
जिस समय सूर्य इन्द्र आदिकी पुरीमें पहुँचते हैं, उस समय उनके प्रकाशसे तीनों लोक प्रकाशित होने लगते हैं। दो विकर्ण, उनके तीन कोण तथा दो पुरियाँ - सबमें सूर्यकी किरणसे प्रकाश फैल जाता है। सम्पूर्ण द्वीप और वर्ष सुमेरुके उत्तरमें स्थित हैं। जो लोग सूर्यको जहाँ उदय होते देखते हैं, उनके लिये वही पूर्व दिशा कही जाती है । 25-26 ॥
उसके वाम भागमें मेरुपर्वत है - ऐसा सुनिश्चित है। काल तथा मार्गके प्रदर्शक हजार किरणोंवाले सूर्य जब इन्द्रपुरीसे संयमनीपुरीको जाते हैं, तब वे पन्द्रह घड़ी में सवा दो करोड़ बारह लाख पचहत्तर हजार | योजनकी दूरी तय करते हैं ॥ 27-286 ॥इसी प्रकार सहस्र नेत्रोंवाले कालचक्रात्मा सूर्य कालज्ञान करानेके लिये वरुणलोक, चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोकका भ्रमण करते हैं ॥ 293 ॥
चन्द्रमा आदि अन्य आकाशचारी जो भी ग्रह हैं, वे नक्षत्रोंके साथ उदय तथा अस्त होते रहते हैं ॥ 306 ॥
इस प्रकार भगवान् सूर्यका वेदमय रथ एक मुहूर्तमें चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। प्रवह नामक वायुके प्रभावसे वह तेजस्वी कालचक्र चारों दिशाओंमें स्थित चारों पुरियोंपरसे घूमता रहता है ॥ 31-323 ॥ सूर्यके रथके एक चक्केमें बारह अरे, तीन धुरियाँ तथा छः नेमियाँ हैं; विद्वान् लोग उस चक्केको एक संवत्सरकी संज्ञा प्रदान करते हैं। इस रथकी धुरीका एक सिरा सुमेरुपर्वतके शिखरपर और दूसरा मानसोत्तरपर्वतके शिखरपर स्थित है। इस धुरीमें लगा हुआ जो पहिया है, वह तेल निकालनेवाले यन्त्र (कोल्हू ) - के पहियेकी भाँति घूमता रहता है और सूर्य भी उस मानसोत्तरपर्वतके ऊपर भ्रमण करते रहते हैं ॥ 33-353 ॥
उस धुरीमें जिसका मूल भाग लगा हुआ है, ऐसी ही एक दूसरी धुरी है, जिसकी लम्बाई पहली धुरीकी चौथाई है। ध्रुवसे लगी हुई वह धुरी तैलयन्त्रकी धुरीके सदृश कही गयी है ॥ 366 ॥
रथके ऊपरी भागमें जगत्के स्वामी सूर्यके बैठनेका स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा तथा उसका चतुर्थांश अर्थात् नौ लाख योजन चौड़ा बताया गया है। उतना ही परिमाणवाला सूर्यके रथका जूआ भी है। रथके सारथि (अरुण) के द्वारा उस जूएमें जुते हुए गायत्री आदि छन्दोंके नामवाले सात घोड़े जगत्के प्राणियोंके कल्याणके लिये भगवान् सूर्यका वहन करते रहते हैं ।। 37 - 396 ॥
सूर्यके आगे उन्हींकी ओर मुख करके उनके सारथि अरुण बैठते हैं। सारथिके कामपर नियुक्त अरुण गरुडके ज्येष्ठ भ्राता हैं ॥ 403 ॥उसी प्रकार बालखिल्य आदि साठ हजार ऋषिगण जो परिमाणमें अँगूठेके पोरके बराबर कहे गये हैं, सूर्यके सम्मुख स्थित होकर मनोहर वैदिक मन्त्रोंद्वारा उनका स्तवन करते हैं। वैसे ही अन्य जो सभी ऋषि, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता हैं - उनमेंसे एक-एक करके ये सातों दो-दो मिलकर प्रत्येक महीने परमेश्वर सूर्यकी उपासना करते हैं ॥ 41-43 ॥
इस प्रकार वे विश्वव्यापी देवदेवेश्वर भगवान् सूर्य प्रतिक्षण दो हजार दो योजनकी दूरी चलते हुए नौ करोड़ इक्यावन लाख योजन मार्गवाले भूमण्डलकी निरन्तर परिक्रमा करते रहते हैं ॥ 44-45 ॥