जनमेजय बोले- हे महाभाग ! आप मुझसे राजाओं के वंशका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये और विशेषरूपसे सूर्यवंशमें उत्पन्न धर्मज्ञ राजाओंके वंशके विषयमें बताइये ॥ 1 ॥व्यासजी बोले- हे भारत! ऋषिश्रेष्ठ नारदजीसे पूर्वकालमें जैसा मैंने सुना है, उसीके अनुसार सूर्यवंशका विस्तृत वर्णन करूँगा; आप सुनिये ॥ 2 ॥
एक समयकी बात है— श्रीमान् नारदमुनि स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हुए सरस्वतीनदीके पावन तटपर पवित्र आश्रममें पधारे ॥ 3 ॥
मैं सिर झुकाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उनके सामने स्थित हो गया। तत्पश्चात् बैठनेके लिये आसन प्रदान करके मैंने आदरपूर्वक उनकी पूजा की ॥ 4 ॥
उनकी विधिवत् पूजा करके मैंने उनसे यह वचन कहा- हे मुनिवर ! आप पूजनीयके आगमनसे मैं पवित्र हो गया ॥ 5 ॥
हे सर्वज्ञ ! इन सातवें मनुके वंशमें जो विख्यात राजागण हो चुके हैं, उन राजाओंके चरित्रसे सम्बन्धित कथा कहिये। उन राजाओं की उत्पत्ति अनुपम है और उनका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है; अतएव हे ब्रह्मन् ! मैं विस्तारके साथ सूर्यवंशका वर्णन सुननेका इच्छुक हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ ! संक्षिप्त या विस्तृत जिस किसी भी रूपमें आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये ॥ 6-73॥
हे राजन्! मेरे ऐसा पूछनेपर परमार्थके ज्ञाता नारदजी हँसते हुए मुझे सम्बोधित करके प्रेमपूर्वक प्रसन्नताके साथ कहने लगे ॥ 83 ॥
नारदजी बोले - हे सत्यवतीतनय राजाओंके अत्युत्तम वंशके विषयमें सुनिये। कानोंको सुख प्रदान करनेवाला यह वंशचरित अत्यन्त पवित्र और धर्म, ज्ञान आदिसे समन्वित है ॥ 93 ॥
सर्वप्रथम जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे प्रकट हुए; ऐसा उनके विषयमें पुराणों में प्रसिद्ध है। सम्पूर्ण जगत्के कर्ता स्वयम्भू ब्रह्माजी सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥ 10-11 ॥
सृष्टि करनेकी अभिलाषावाले उन विश्वात्मा ब्रह्माजीने पहले देवी शिवाका ध्यान करके दस हजार वर्षोंतक तपस्या की और उनसे महान् शक्ति प्राप्त करके शुभ लक्षणोंवाले मानस पुत्र उत्पन्न किये। उन मानस पुत्रोंमें सर्वप्रथम मरीचि उत्पन्न हुए, | जो सृष्टि कार्यमें प्रवृत्त हुए । 12-13 ॥उन मरीचिके परम प्रसिद्ध तथा सर्वमान्य पुत्र कश्यपजी हुए। दक्षप्रजापतिकी तेरह कन्याएँ उन्हींकी भार्याएँ थीं ॥ 14 ll
देवता, दैत्य, यक्ष, सर्प, पशु और पक्षी-सब के-सब उन्हींसे उत्पन्न हुए; अतएव यह सृष्टि काश्यपी है ॥ 15 ॥
देवताओं में सूर्य सबसे श्रेष्ठ हैं। उनका नाम विवस्वान् भी है। उनके पुत्र वैवस्वत मनु थे, वे परम प्रसिद्ध राजा हुए ।। 16 ।।
उन वैवस्वत मनुके पुत्ररूपमें सूर्यवंशकी वृद्धि करनेवाले इक्ष्वाकुका प्रादुर्भाव हुआ। इक्ष्वाकुके जन्मके बाद उन मनुके नौ पुत्र और उत्पन्न हुए। हे राजेन्द्र ! आप एकाग्रचित्त होकर उनके नाम सुनिये; इक्ष्वाकुके अतिरिक्त नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, नृग, सातवें दिष्ट एवं करूष और पृषध-ये नौ 'मनुपुत्र' के रूपमें प्रसिद्ध हैं ।। 17-19 ॥
इन मनुपुत्रोंमें इक्ष्वाकु सबसे पहले उत्पन्न हुए थे। उनके सौ पुत्र हुए; उनमें आत्मज्ञानी विकुक्षि सबसे बड़े थे ॥ 20 ॥
अब आप मनुवंशमें जन्म लेनेवाले पराक्रमी सभी नौ मनुपुत्रोंके वंश विस्तारके विषयमें संक्षेपमें सुनिये ॥ 21 ॥ नाभागके पुत्र अम्बरीष हुए। वे प्रतापी, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और प्रजापालनमें तत्पर रहनेवाले थे ॥ 22 ॥ धृष्टसे धार्ष्ट हुए, जो क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मण बन गये। संग्रामसे विमुख रहकर वे सम्यक्रूपसे ब्राह्मणोचित कर्ममें निरत रहते थे ॥ 23 ॥ शर्यातिके आनर्त नामक पुत्र उत्पन्न हुए; वे अति प्रसिद्ध हुए। रूप तथा सौन्दर्यसे युक्त एक सुकन्या नामक पुत्री भी उनसे उत्पन्न हुई। राजा | शर्यातिने अपनी वह सुन्दरी पुत्री नेत्रहीन च्यवनमुनिको सौंप दी। बादमें उसी सुकन्याके शील तथा गुणके प्रभावसे च्यवनमुनि सुन्दर नेत्रोंवाले हो गये। सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारोंने उन्हें नेत्रयुक्त कर दिया था - ऐसा | हमने सुना है ।। 24-253 ॥जनमेजय बोले- हे ब्रह्मन् । आपने कथामें जो यह कहा कि राजा शर्यातिने अन्धे मुनिको अपनी सुन्दर नेत्रोंवाली कन्या प्रदान कर दी तो इसमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है। यदि उनकी पुत्री कुरूप, गुणहीन और शुभ लक्षणोंसे हीन होती, तब वे राजा शर्याति उसका विवाह नेत्रहीनके कर भी सकते थे, किंतु [ च्यवनमुनिको] दृष्टिहीन जानते हुए भी उन नृपश्रेष्ठने उन्हें अपनी सुमुखी कन्या कैसे सौंप दी? हे ब्रह्मन् ! मुझे इसका कारण बतायें; मैं सदा आपके अनुग्रहके योग्य हूँ ॥ 26-286 ॥
सूतजी बोले- परीक्षित्के पुत्र राजा जनमेजयकी बात सुनकर प्रसन्न मनवाले व्यासजी हँसते हुए उनसे कहने लगे ॥ 293 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! वैवस्वत मनुके पुत्र शर्याति नामवाले ऐश्वर्यशाली राजा थे। उनकी | चार हजार भार्याएँ थीं। वे सभी राजकुमारियाँ अत्यन्त रूपवती तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त थीं। राजाकी सभी पत्नियाँ प्रेमयुक्त रहती हुई सदा उनके व्यवहार करती थीं ॥ 30-313 ॥ अनुकूल उन सबके बीचमें सुकन्या नामक एक ही सुन्दरी पुत्री थी। सुन्दर मुसकानवाली वह कन्या पिता तथा समस्त माताओंके लिये अत्यन्त प्रिय थी ॥ 323 ॥ उस नगरसे थोड़ी ही दूरीपर मानसरोवरके तुल्य
एक तालाब था। उसमें उतरनेके लिये सीढ़ियोंका मार्ग बना हुआ था। वह सरोवर स्वच्छ जलसे परिपूर्ण था। हंस, बत्तख, चक्रवाक, जलकाक और सारस पक्षियोंसे वह सरोवर व्याप्त और सुशोभित था। अन्य पक्षिसमूहोंसे भी वह आवृत रहता था। वह पाँच प्रकारके कमलोंसे सुशोभित था, जिनपर भौंरे मँडराते रहते थे ।। 33-35 ॥
उस सरोवरका तट बहुत-से वृक्षों तथा सुन्दर पौधों आदिसे घिरा हुआ था। वह सरोवर साल, तमाल, देवदारु, पुन्नाग और अशोकके वृक्षोंसे सुशोभित था । वट, पीपल, कदम्ब, केला, नीबू, बीजपूर (बिजौरा नीबू), खजूर, कटहल, सुपारी, नारियल तथा केतकी, कचनार, जूही, मालती-जैसी सुन्दर एवं स्वच्छलताओं तथा वृक्षोंसे वह सम्यक् प्रकारसे सम्पन्न था। जामुन, आम, इमली, करंज, कोरैया, पलाश, नीम, खैर और बेल तथा आमला आदि वृक्षोंसे सुशोभित था ।। 36-39 ॥
कोकिलों और मयूरोंकी ध्वनिसे वह सदा निनादित रहता था। उस सरोवरके पासमें ही वृक्षोंसे घिरे हुए एक शुभ स्थानपर शान्त चित्तवाले महातपस्वी भृगुवंशी च्यवनमुनि रहते थे। उस स्थानको निर्जन समझकर उन्होंने मनको एकाग्र करके तपस्या प्रारम्भ कर दी ।। 40-41 ।।
वे आसनपर दृढ़तापूर्वक विराजमान होकर मौन धारण किये हुए थे। प्राणवायुपर उनका पूर्ण अधिकार था तथा सभी इन्द्रियाँ उनके वशमें थीं। उन तपोनिधिने भोजन भी त्याग दिया था ll42 ll
वे जल ग्रहण किये बिना जगदम्बाका ध्यान करते थे हे राजन् उनके शरीरपर लताएँ घिरी हुई थीं तथा दीमकोंद्वारा वे पूरी तरहसे ढक लिये गये थे ।। 43 ll हे राजन्! बहुत दिनोंतक इस प्रकार बैठे रहनेके कारण उनपर दीमककी चींटियाँ चढ़ गयीं और उनसे वे घिर गये। वे बुद्धिसम्पन्न मुनि पूरी तरहसे मिट्टीके ढेर सदृश हो गये थे ॥ 44 ॥
हे राजन्। किसी समय वे राजा शर्याति अपनी रानियोंके साथ विहार करनेके लिये उस उत्तम सरोवरपर आये 45
सरोवरका जल स्वच्छ था, कमल खिले हुए थे। अतएव राजा शर्याति सुन्दरियोंको साथ लेकर जल-क्रीड़ा करने लगे ॥ 46 ll
लक्ष्मीकी तुलना करनेवाली तथा चंचल स्वभाववाली वह सुकन्या वनमें आकर सुन्दर फूलोंको चुनती हुई सखियोंके साथ विहार करने लगी। वह सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थी तथा उसके चरणके नूपुर मधुर ध्वनि कर रहे थे। इधर-उधर भ्रमण करती हुई वह राजकुमारी [सुकन्या] वल्मीक बने हुए च्यवनमुनिके निकट पहुँच गयी। क्रीडामें आसक्त वह सुकन्या वल्मीकके निकट बैठ गयी और उसे वल्मीकके छिद्रोंसे जुगुनूकी तरह चमकनेवाली दो ज्योतियाँ दिखायी पड़ीं ॥ 47- 49 ॥यह क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर उसने आवरण हटानेका मनमें निश्चय किया। तत्पश्चात् वह सुन्दरी एक नुकीला काँटा लेकर शीघ्रतापूर्वक मिट्टी हटाने लगी ॥ 50 ॥
मुनि च्यवनने विचरण करनेवाली, कामदेवकी स्त्री रतिके सदृश तथा सुन्दर केशोंवाली उस राजकुमारीको पासमें स्थित होकर मिट्टी हटानेमें संलग्न देखा ।। 51 ।। क्षीण स्वरवाले तपोनिधि च्यवनमुनि सुन्दर दाँतोंवाली उस सुन्दरी सुकन्याको देखकर उससे कहने लगे यह क्या! हे विशाल नयनोंवाली दूर चली जाओ। हे सुमुखि मैं एक तपस्वी हूँ हे कृशोदरि ! इस बाँबीको काँटेसे मत हटाओ ।। 52-53 ।।
मुनिके कहनेपर भी उसने उनकी बातें न सुनीं। यह कौन-सी [ चमकनेवाली] वस्तु है—यह कहकर उसने मुनिके नेत्र भेद डाले ll 54 ll
दैवकी प्रेरणासे राजकुमारी उनके नेत्र बींधकर सशंक भावसे खेलती हुई और मैंने यह क्या कर डाला' - यह सोचती हुई वहाँसे चली गयी। नेत्रोंके बिँध जानेसे महर्षिको क्रोध हुआ और अत्यधिक वेदनासे पीड़ित होनेके कारण वे बहुत दुःखित हुए ।। 55-56 ॥
उसी समयसे राजाके सभी सैनिकोंका मल-मूत्र अवरुद्ध हो गया। मन्त्रीसहित राजाको विशेषरूपसे यह कष्ट झेलना पड़ा। हाथी, घोड़े और ऊँट आदि सभी प्राणियोंके मल तथा मूत्रका अवरोध हो जानेपर राजा शर्याति अत्यन्त दुःखी हुए ।। 57-58 ll
सैनिकोंने मल-मूत्रके अवरोधकी बात उन्हें बतायी, तब उन्होंने इस कष्टके कारणपर विचार किया। कुछ समय सोचनेके बाद राजा घरपर आकर अपने परिजनों तथा सैनिकोंसे अत्यन्त व्याकुल होकर पूछने | लगे-किसके द्वारा यह निकृष्ट कार्य किया गया है? उस सरोवर के पश्चिमी तटवाले वनमें महान् तपस्वी च्यवनमुनि कठिन तपस्या कर रहे हैं।। 59-61 ॥
अग्निके समान तेजस्वी उन तपस्वीके प्रति किसीने कोई अपकार अवश्य ही किया है। इसलिये हम सबको ऐसा कष्ट हुआ है- यह निश्चित है ॥ 62महातपस्वी, वृद्ध तथा श्रेष्ठ भृगुनन्दन महात्मा च्यवनका अवश्य ही किसीने अनिष्ट कर दिया है ऐसा मैं मानता हूँ ॥ 63 ॥
यह अनिष्ट जानमें किया गया हो अथवा अनजानमें, उसका नियत फल तो भोगना ही पड़ेगा । न जाने किन दुष्टोंने उन तपस्वीका अपमान किया | है ? ॥ 64 ॥
राजाके ऐसा पूछनेपर दुःखसे व्याकुल हुए | सैनिकोंने उनसे कहा- हमलोगोंके द्वारा मन- न-वाणी कर्मसे मुनिका कुछ भी अपकार हुआ हो-इसे हमलोग नहीं जानते ॥ 65 ॥