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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 9 - Skand 7, Adhyay 9

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सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा

व्यासजी बोले- हे राजन्! किसी समय अष्टका श्राद्धके अवसरपर बुद्धिमान् भूपति इक्ष्वाकुने | विकुक्षिको आज्ञा दी कि हे पुत्र ! इस समय वनमें जाकर श्राद्धके लिये शीघ्र ही आदरपूर्वक पवित्र कव्य ले आओ ॥ 13 ॥

राजाके इस प्रकार कहनेपर विकुक्षि आयुध धारण करके तुरंत बनकी ओर चल पड़ा। वहाँ जाकर वह थक गया तथा भूखसे व्याकुल हो उठा। इस कारणसे वह अष्टका श्राद्धकी बात भूल गया और उसने वनमें ही एकत्रित किये गये श्राद्धद्रव्यके कुछ अंशका भक्षण कर लिया और बचा हुआ लाकर पिताजीको दे दिया। तब प्रोक्षणके निमित्त समक्ष लावे गये उस कव्यको देखकर और फिर उसे श्राद्धके लिये अनुपयुक्त जानकर मुनिश्रेष्ठ गुरु वसिष्ठ अत्यन्त कुपित हो उठे ॥ 25॥

'भोजनसे शेष बचे हुए द्रव्यका श्राद्धमें प्रोक्षण नहीं करना चाहिये-ऐसा नियम है'-इस पाकदोषके विषयमें वसिष्ठने राजाको बता दिया ॥ 6 ॥गुरु वसिष्ठके कथनानुसार अपने पुत्र विकुक्षिका वह दुष्कर्म जानकर विधिलोपके कारण उन्होंने उसे अपने देशसे बाहर निकाल दिया। वह राजकुमार तभीसे 'शशाद' इस नामसे विख्यात हो गया। वह शशाद पिताके कोपसे किंचित् भयभीत होकर वनमें चला गया ॥ 7-8 ॥

वह विकुक्षि वहाँ वन्य आहारपर जीवनयापन करते हुए धर्मपरायण होकर रहने लगा। तत्पश्चात् पिताकी मृत्यु हो जानेपर उस मनस्वी शशादको राज्य प्राप्त हो गया और वह शासन करने लगा। उस अयोध्यापति शशादने स्वयं सरयूनदीके तटपर अनेक यज्ञ सम्पन्न किये ॥ 9-10 ॥

उस शशादको एक पुत्र हुआ जो 'ककुत्स्थ' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस ककुत्स्थके इन्द्रवाह और पुरंजय - ये दो नाम और भी थे ॥ 11 ॥

जनमेजय बोले- हे निष्पाप मुने! उस राजकुमारके अनेक नाम कैसे हुए? उसके जिस-जिस कर्मके कारण ये नाम हुए, वह सब मुझे बताइये ॥ 12 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्। शशादके स्वर्गवासी हो जानेपर 'ककुत्स्थ' राजा बने। (वे धर्मज्ञ ककुत्स्थ पिता-पितामहसे परम्पराप्राप्त राज्यपर बलपूर्वक शासन करने लगे।) उसी समय सभी देवगण दैत्योंसे पराजित होकर तीनों लोकोंके स्वामी अविनाशी भगवान् विष्णुकी शरणमें गये। तब सनातन भगवान् श्रीहरि उन देवताओंसे कहने लगे ॥ 13-14॥

भगवान् विष्णु बोले- हे श्रेष्ठ देवगण! आपलोग शशादपुत्र राजा ककुत्स्थसे युद्धमें सहायक बननेके लिये प्रार्थना कीजिये वे ही युद्धमें दैत्योंको मार सकेंगे। वे धर्मात्मा ककुत्स्थ धनुष धारण करके सहायताके लिये अवश्य आयेंगे। भगवती पराशक्तिकी कृपासे उनके पास अतुलनीय सामर्थ्य है । ll 15-16 ॥

हे महाराज भगवान् विष्णुकी यह उत्तम वाणी सुनकर इन्द्रसमेत सभी देवतागण अयोध्यामें रहनेवाले शशादपुत्र महाराज ककुत्स्थ के पास जा पहुँचे 17 ॥ राजा ककुत्स्थने उन आये हुए देवताओंका धर्मपूर्वक अत्यन्त उत्साहके साथ पूजन किया और इसके बाद वे उनसे आनेका प्रयोजन पूछने लगे ॥ 18 ॥राजा बोले- हे देवगण! मैं धन्य और पवित्र हो गया; मेरा जीवन सार्थक हो गया, जो कि आप लोगोंने मेरे घर पधारकर मुझे अपना महनीय दर्शन दिया है। हे देवेश्वरी आप मुझे अपने कार्यके विषयमें बतलाएँ। आपका वह कार्य चाहे मनुष्योंके लिये परम दुःसाध्य ही हो, मैं वह महान् कार्य हर प्रकारसे सम्पन्न करूँगा ॥ 19-20 ॥

देवता बोले- हे राजेन्द्र हमारी सहायता कीजिये; शचीपति इन्द्रके सखा बन जाइये और | देवताओंके लिये भी अजेय महान् दैत्योंको युद्धमें परास्त कर दीजिये। पराशक्ति जगदम्बाके अनुग्रहसे आपके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। भगवान् विष्णुके भेजनेपर ही हमलोग आपके पास आये हैं ।। 21-22 ॥

राजा बोले- हे श्रेष्ठ देवतागण ! यदि इन्द्र उस युद्धमें मेरा वाहन बनें तो मैं अभी देवताओंकी ओरसे सेनापति बन जाऊँगा। मैं इसी समय इन्द्रपर आरूढ़ होकर युद्धक्षेत्रमें जाऊँगा और देवताओंके लिये युद्ध करूँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ll 23-24 ll

तब देवताओंने इन्द्रसे कहा- हे शचीपते। [इस समय] आपको यह अद्भुत कार्य करना है। आप लज्जा छोड़कर राजा ककुत्स्थका वाहन बन जाइये ।। 25 ।।

उस समय इन्द्र बड़े संकोचमें पड़ गये, फिर भगवान् श्रीहरिके बार-बार प्रेरणा करनेपर वे तुरंत एक ऐसे वृषभके रूपमें प्रकट हो गये मानो भगवान् रुद्रके दूसरे महान् नन्दी ही हों ॥ 26 ॥

तब संग्राममें जानेके लिये वे राजा उस वृषभपर चड़े और उसके ककुदपर बैठे, इसी कारणसे वे 'ककुत्स्थ' नामवाले हो गये। उन्होंने इन्द्रको अपना वाहन बनाया था, इसलिये वे 'इन्द्रवाहक' नामसे प्रसिद्ध हुए और उन्होंने दैत्योंके पुर (नगर) पर विजय प्राप्त की थी, इसलिये वे 'पुरंजय' नामवाले भी हो गये । ll 27-28 ॥

तत्पश्चात् उन महाबाहु ककुत्स्थने दैत्योंको जीतकर उनका धन देवताओंको दे दिया और [फिर वहाँसे प्रस्थान करने के लिये देवताओंसे] पूछा। इस | प्रकार इन्द्रके साथ राजर्षि ककुत्स्थकी मैत्री हुई ।। 29 ।।महाराज ककुत्स्थ महान् प्रसिद्ध राजा थे। उनके वंशमें उत्पन्न सभी राजा 'काकुत्स्थ' नामसे पृथ्वीलोक में अत्यधिक प्रसिद्ध हुए ॥ 30 ॥

राजा ककुत्स्थकी धर्मपत्नीके गर्भ से एक महाबली पुत्र हुआ, जो 'अनेना' नामसे विख्यात हुआ। उस 'अनेना' को एक पृथु नामक पराक्रमी पुत्र हुआ; उसे साक्षात् भगवान् विष्णुका अंश कहा गया है। वह पराशक्ति जगदम्बाके चरणोंका उपासक था, उन पृथुके पुत्ररूपमें राजा विश्वन्धिको जानना चाहिये ।। 31-32 ॥

उन 'विश्वरन्धि' के चन्द्र नामक परम ऐश्वर्यशाली पुत्र हुए, वे चन्द्रवंशकी वृद्धि करनेवाले कहे जाते हैं। उनके पुत्र युवनाश्व थे, जो परम तेजस्वी तथा महान् बलशाली थे ॥ 33 ॥

उन युवनाश्वके 'शावन्त' नामक परम धार्मिक पुत्र उत्पन्न हुए। उन्होंने इन्द्रपुरीके समान प्रतीत होनेवाली शावन्ती नामकी पुरीका निर्माण कराया ॥ 34 उन महात्मा शावन्तके 'बृहदश्व' नामक पुत्र हुए और बृहदश्वके पुत्र राजा कुवलयाश्व हुए उन कुवलयाश्वने 'धुन्धु' नामक दैत्यका संहार किया, तभीसे उन्होंने पृथ्वीलोकमें 'धुन्धुमार' नामसे परम प्रसिद्धि प्राप्त की ।। 35-36

उनके पुत्र दृढाश्व हुए, जिन्होंने पृथ्वीकी भलीभाँति रक्षा की। उन दृढाश्वके पुत्र श्रीमान् हर्यश्व कहे गये हैं॥ 37 ॥ उन हर्यश्वके 'निकुम्भ' नामक पुत्र कहे गये हैं। वे महान् राजा हुए; निकुम्भके पुत्र बर्हणाश्व और उनके पुत्र कृशाश्व हुए ॥ 38 ॥

उन कुशाश्वके प्रसेनजित् नामक बलवान् तथा सत्यपराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए और प्रसेनजित्के एक भाग्यशाली पुत्र उत्पन्न हुए, वे 'यौवनाश्व'- इस नामसे प्रसिद्ध हुए। 39 ॥

उन यौवनाश्वके पुत्र श्रीमान् राजा मान्धाता थे। हे मानद। उन्होंने भगवती जगदम्बाको प्रसन्न करनेके लिये महातीर्थों में एक हजार आठ देवालयोंका निर्माण कराया था। ये माताके गर्भसे जन्म न लेकर पिताके उदरसे उत्पन्न हुए थे। पिताकी कुक्षिका भेदनकर उन्हें वहाँसे निकाला गया था ।। 40-413 ॥राजा बोले- हे महाभाग [ व्यासजी!] | महाराज मान्धाताके जन्मके विषयमें जैसा आपने कहा है, वह तो असम्भव-सी घटना है, मैंने ऐसा न तो सुना है और न देखा ही है। अब आप राजा मान्धाताके जन्मका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताइये। वह सर्वांगसुन्दर पुत्र राजा यौवनाश्वके उदरसे जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसे कहिये ।। 42-433 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन्! परम धर्मनिष्ट राजा यौवनाश्व सन्तानहीन थे। उन महाराजकी एक सौ रानियाँ थीं, किंतु किसीसे भी सन्तान न होनेके कारण वे प्रायः चिन्तित रहते और सन्तानके लिये नित्य सोचमें पड़े रहते थे। अन्तमें अत्यन्त दुःखित होकर वे यौवनाश्व वनमें चले गये ।। 44-453 ।।

वहाँ ऋषियोंके पवित्र आश्रममें रहते हुए वे महाराज यौवनाश्व सदा खिन्न रहते थे और व्यथित होकर सदा दीर्घ श्वास छोड़ते रहते थे, इसे वहाँ रहनेवाले तपस्वीजन बराबर देखा करते थे। उन्हें इस प्रकार दुःखित देखकर सभी विप्रोंको उनपर दया आ गयी। ब्राह्मणोंने उनसे पूछा हे राजन्! आप यह चिन्ता किसलिये कर रहे हैं? हे पार्थिव आपको कौन-सा कष्ट है? हे महाराज! आप अपने मनकी बात सच-सच बताइये, हमलोग हर तरहसे आपका दुःख दूर करनेका उपाय करेंगे । ll 46 - 483 ll

यौवनाश्व बोले- हे मुनियो ! मेरे पास राज्य, धन तथा उत्तम कोटिके बहुत-से घोड़े विद्यमान हैं; दिव्य प्रभासे युक्त एक सौ साध्वी रानियाँ मेरे पास हैं, तीनों लोकोंमें मेरा कोई भी बलवान् शत्रु नहीं है और मेरे सभी मन्त्री तथा सामन्त सदा मेरे आज्ञापालनमें तत्पर रहते हैं ।। 49-503 ।।

हे तपस्वियो। मुझे एकमात्र दुःख सन्तान न होनेका है; इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी दुःख मेरी दृष्टिमें नहीं है। हे विप्रेन्द्रो ! पुत्रहीन व्यक्तिको न तो सद्गति होती है और न उसे स्वर्ग ही मिलता है, अतः सन्तानके लिये मैं सदा अत्यधिक शोकाकुल रहता हूँ। हे तपस्वियो! आपलोग महान् परिश्रमकरके वेद-शास्त्रोंके रहस्य जाननेवाले हैं, मुझ सन्तानकामीके लिये करणीय जो उपयुक्त यज्ञ हो, उसे सोच-समझकर मुझे बतायें। हे तापसो! यदि मुझपर आपलोगोंकी कृपा हो, तो मेरा यह कार्य | सम्पन्न कर दें ॥ 51-533 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्! राजा यौवनाश्वकी बात सुनकर दयासे परिपूर्ण हृदयवाले उन ब्राह्मणोंने इन्द्रको प्रधान देवता बनाकर अत्यन्त सावधानीपूर्वक उन नरेशसे एक यज्ञ करवाया। ब्राह्मणोंने वहाँपर जलसे परिपूर्ण एक कलश स्थापित कराया और राजा यौवनाश्वकी पुत्रप्राप्तिके निमित्त वेदमन्त्रोंके द्वारा उस कलशका अभिमन्त्रण किया ।। 54-553 ॥

राजा यौवनाश्वको रातमें प्यास लग गयी, जिससे वे यज्ञशालामें चले गये। [ वहाँ कहीं भी जल न देखकर तथा] ब्राह्मणोंको सोता हुआ देखकर उन्होंने कलशवाला अभिमन्त्रित जल स्वयं ही पी लिया ॥ 563 ॥

हे नृपश्रेष्ठ! प्याससे व्याकुल राजा यौवनाश्व ब्राह्मणोंके द्वारा विधिपूर्वक अभिमन्त्रित करके रानीके लिये रखे गये उस पवित्र जलको अज्ञानपूर्वक पी गये ॥ 573 ॥

तत्पश्चात् कलशको जल-विहीन देखकर ब्राह्मण सशंकित हो गये। उन विप्रोंने राजा यौवनाश्वसे पूछा कि इस जलको किसने पीया है ? ॥ 583 ॥ स्वयं राजा यौवनाश्वने जल पीया है— इस बातको जानकर और दैव सबसे बढ़कर बलवान् होता है - यह समझकर उन महर्षियोंने यज्ञ सम्पन्न किया और बादमें वे अपने-अपने घर चले गये ॥ 593 ॥ तदनन्तर मन्त्रके प्रभावसे राजा यौवनाश्वने गर्भ धारण कर लिया। तब गर्भके पूर्ण होनेपर राजाकी दाहिनी कोखका भेदन करके वे (मान्धाता) उत्पन्न हुए ॥ 606 ॥

राजाके मन्त्रियोंने पुत्रको बाहर निकाला। देवताओंकी कृपासे राजा यौवनाश्वकी मृत्यु नहीं हुई। तब चिन्तित होकर मन्त्रीलोग यह कहकर जोरसे चिल्ला उठे - यह कुमार किसका दूध पीयेगा ? इतनेमें इन्द्रने उसके मुखमें अपनी तर्जनी अँगुलीडाल दी और यह वचन कहा- 'मां धाता' अर्थात् यह मेरा दुग्ध-पान करेगा। वे ही मान्धाता नामक महान् बलशाली राजा हुए। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने उनकी उत्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन आपसे कर दिया ॥ 61-63 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति