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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 9 - Skand 8, Adhyay 9

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हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] पापोंका नाश करनेवाले, योगसे युक्त आत्मावाले तथा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् नृसिंह हरिवर्षमें प्रतिष्ठित हैं ॥ 1 ॥ भगवान्के गुण तत्त्वोंको जाननेवाले परम भागवत असुर प्रह्लाद उनके दयामयरूपका दर्शन करते हुए भक्तिभावसे युक्त होकर उनकी स्तुति करते हैं॥ 2 ॥

प्रह्लाद बोले- तेजोंके भी तेज ॐ कारस्वरूप भगवान् नरसिंहको बार-बार नमस्कार है। हे वज्रदंष्ट्र! आप मेरे सामने प्रकट होइये, प्रकट होइये मेरे कर्मविषयोंको जला डालिये, जला डालिये और मेरे अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कीजिये, ॐ स्वाहा; मुझे अभय दीजिये तथा मेरे अन्तःकरणमें प्रतिष्ठित होइये। ॐ क्ष।हे प्रभो! अखिल जगत्का कल्याण हो, दुष्टलोग शुद्ध भावनासे युक्त हों, सभी प्राणी अपने मनमें एक दूसरेके कल्याणका चिन्तन करें, हम सबका मन शुभ मार्गमें प्रवृत्त हो और हमारी मति निष्कामभावसे युक्त होकर भगवान् श्रीहरिमें प्रविष्ट हो ॥ 3 ॥

[हे भगवन्!] घर, स्त्री, पुत्र, धन और बन्धु बान्धवोंमें हमारी आसक्ति न हो और यदि हो तो भगवान् के प्रियजनोंमें हो। जो संयमी पुरुष केवल प्राण-रक्षाके योग्य आहारसे सन्तुष्ट रहता है, वह शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है, किंतु इन्द्रियप्रिय व्यक्ति वैसा नहीं कर पाता ॥ 4 ॥

जिन भगवद्भक्तोंके संगसे भगवान् के तीर्थतुल्य चरित्र सुननेको मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति-वैभवके सूचक हैं तथा जिनका बार-बार सेवन करनेवालोंके कानोंके मार्गसे भगवान् हृदयमें प्रवेश करके उनके सभी प्रकारके मानसिक तथा दैहिक कष्टों को हर लेते हैं-उन भगवद्भक्तोंका संग कौन नहीं करना चाहेगा ? ॥ 5 ॥

भगवान्‌में जिस पुरुषकी निष्काम भक्ति होती है, उसके हृदयमें देवता, धर्म, ज्ञान आदि सभी गुणोंसहित निवास करते हैं, किंतु अनेक मनोरथोंसे युक्त होकर बाहरी विषय-सुखकी ओर दौड़नेवाले भगवद्भक्तिरहित मनुष्यमें महान् गुण कहाँसे हो सकते हैं ? ॥ 6

जैसे मछलियोंको जल अत्यन्त प्रिय है, उसी प्रकार साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही सभी देहधारियोंकी आत्मा हैं। उनका त्याग करके यदि कोई महत्त्वाभिमानी घरमें आसक्त रहता है तो उस दशामें दम्पतियोंका महत्त्व केवल उनकी आयुको लेकर माना जाता है, गुणोंकी दृष्टिसे कदापि नहीं ॥ 7 ॥

अतएव तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, मान, कामना, भय, दीनता, मानसिक सन्तापके मूल और जन्म मरणरूप संसारचक्रका वहन करनेवाले गृहका परित्याग करके भगवान् नृसिंहके चरणका आश्रय लेनेवालोंको भय कहाँ ! ॥ 8 ll

[हे नारद!] इस प्रकार वे दैत्यपति प्रह्लाद पापरूपी हाथियोंके लिये सिंहस्वरूप तथा हृदयकमलमें निवास करनेवाले भगवान् नृसिंहकी भक्तिपूर्वक निरन्तर | स्तुति करते रहते हैं ॥ 9 ॥केतुमालवर्षमें भगवान् श्रीहरि कामदेवका रूप | धारण करके प्रतिष्ठित हैं। उस वर्षके अधीश्वरोंके लिये वे सर्वदा पूजनीय हैं ॥ 10 ॥

इस वर्षकी अधीश्वरी तथा महान् लोगोंको सम्मान देनेवाली समुद्रतनया लक्ष्मीजी इस स्तोत्रसमूहसे निरन्तर उनकी उपासना करती हैं ॥ 11 ॥

रमा बोलीं- इन्द्रियोंके स्वामी, सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओंसे लक्षित आत्मावाले, ज्ञान-क्रिया-संकल्पशक्ति | आदि चितके धर्मों तथा उनके विषयोंके अधिपति | सोलह कलाओंसे सम्पन्न, वेदोक्त कमसे प्राप्त होनेवाले अन्नमय, अमृतमय, सर्वमय, महनीय, ओजवान् बलशाली तथा कान्तियुक्त भगवान् कामदेवको ॐ ह्रां ह्रीं हूं ॐ - इन बीजमन्त्रोंके साथ सब ओरसे नमस्कार है।

[[हे प्रभो!] स्त्रियाँ अनेक प्रकारके व्रतोंद्वारा आप हृषीकेश्वरकी आराधना करके लोकमें अन्य पतिकी इच्छा किया करती हैं; किंतु वे पति उनके प्रिय पुत्र, धन और आयुकी रक्षा नहीं कर पाते हैं; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र होते हैं ॥ 12 ॥

[हे परमात्मन्!] पति तो वह होता है, जो स्वयं | किसीसे भयभीत न रहकर भयग्रस्त जनकी भलीभाँति रक्षा करता है। वैसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एक से अधिक पति माने जायें तो उन्हें परस्पर भयकी सम्भावना रहती है। अतः आप अपनी प्राप्तिसे बढ़कर और कोई लाभ नहीं मानते ॥ 13 ॥

हे भगवन्! जो स्त्री आपके चरणकमलोंके पूजनकी कामना करती है और अन्य वस्तुकी अभिलाषा नहीं करती, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। किंतु जो किसी एक कामनाको लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं और जब भोगके पश्चात् वह वस्तु नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे दुःखित होना पड़ता है ॥ 14 ॥

हे अजित इन्द्रियसुख पानेका विचार रखनेवाले ब्रह्मा स्द्र देव तथा दानव आदि मेरी प्राप्तिके लिये कठिन तप करते हैं; किंतु आपके चरणकमलोंकी उपासना करनेवालेके अतिरिक्त अन्य कोई भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकते; क्योंकि मेरा हृदय सदा आपमें ही लगा रहता है ॥ 15 ॥हे अच्युत! आप अपने जिस वन्दनीय करकमलको भक्तोंके मस्तकपर रखते हैं, उसे मेरे भी सिरपर रखिये हे वरेण्य! आप मुझे केवल श्रीवत्सरूपसे अपने वक्षःस्थलपर ही धारण करते हैं। मायासे की हुई आप परमेश्वरकी लीलाको जाननेमें भला कौन समर्थ है ? ।। 16 ।।

[हे नारद!] इस प्रकार [केतुमालवर्षमें] लक्ष्मीजी तथा इस वर्षके अन्य प्रजापति आदि प्रमुख अधीश्वर भी कामनासिद्धिके लिये कामदेव रूपधारी लोकबन्धुस्वरूपी श्रीहरिकी स्तुति करते हैं ॥ 17 ॥

रम्यक नामक वर्षमें मनुजी भगवान् श्रीहरिको देवदानवपूजित सर्वश्रेष्ठ मत्स्यमूर्तिकी निरन्तर इस
प्रकार स्तुति करते रहते हैं ॥ 18 ॥

मनुजी बोले - सबसे प्रधान, सत्त्वमय, प्राणसूत्रात्मा, ओजस्वी तथा बलयुक्त ॐकारस्वरूप भगवान् महामत्स्यको बार-बार नमस्कार है। आप सभी प्राणियोंके भीतर और बाहर संचरण करते हैं। आपके रूपको ब्रह्मा आदि सभी लोकपाल भी नहीं देख सकते। वेद ही आपका महान् शब्द है। वे ईश्वर आप ही हैं। ब्राह्मण आदि विधिनिषेधात्मकरूप डोरीसे इस जगत्को अपने अधीन करके उसे उसी प्रकार नचाते हैं, जैसे कोई नट कठपुतलीको नचाता है ॥ 19 ॥

आपके प्रति ईर्ष्याभावसे भरे हुए लोकपाल आपको छोड़कर अलग-अलग तथा मिलकर भी मनुष्य, पशु, नाग आदि जंगम तथा स्थावर प्राणियोंकी रक्षा करनेका प्रयत्न करते हुए भी रक्षा नहीं कर सके ॥ 20 ॥

हे अजन्मा प्रभो! जब ऊँची लहरोंसे युक्त प्रलयकालीन समुद्र विद्यमान था, तब आप औषधियों और लताओंकी निधिस्वरूप पृथ्वी तथा मुझको लेकर उस समुद्र में उत्साहपूर्वक क्रीडा कर रहे थे; जगत्के समस्त प्राणसमुदायके नियन्ता आप भगवान् मत्स्यको नमस्कार है ॥ 21 ॥

इस प्रकार राजाओंमें श्रेष्ठ मनुजी सभी संशयोंको समूल समाप्त कर देनेवाले मत्स्यरूपमें अवतीर्ण देवेश्वर भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करते हैं॥ 22 ॥भगवान्के ध्यानयोगके द्वारा अपने सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर चुके तथा महाभागवतोंमें श्रेष्ठ मनुजी भक्तिपूर्वक भगवान्की उपासना करते हुए यहाँ प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ 23॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन