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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 10 - Skand 8, Adhyay 10

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हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] हिरण्मय नामक वर्षमें भगवान् श्रीहरि कूर्मरूप धारण करके विराजमान हैं। यहाँ अर्यमाके द्वारा उन योगेश्वरभगवान्‌की पूजा तथा स्तुति की जाती है ॥ 1 ॥

अर्यमा बोले - सम्पूर्ण सत्त्व आदि गुण विशेषणोंसे युक्त, जलमें रहनेके कारण अलक्षित | स्थानवाले, कालसे सर्वथा अतीत आधारस्वरूप तथा ॐकाररूप भगवान् कूर्मको बार-बार नमस्कार है।

[[हे प्रभो!] अनेक रूपोंमें दिखायी देनेवाला यह जगत् यद्यपि मिथ्या ही निश्चय होता है, इसलिये इसकी वस्तुतः कोई संख्या नहीं है; तथापि यह मायासे प्रकाशित होनेवाला आपका ही रूप है, ऐसे उन अनिर्वचनीय आपको नमस्कार है॥ 2 ॥

एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, चर, अचर, देवता, ऋषि, पितर, भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप, ग्रह और नक्षत्र– इन नामोंसे विख्यात हैं ॥ 3 ॥

विद्वानोंने असंख्य नाम, रूप और आकृतियोंवाले आपमें जिन चौबीस तत्त्वोंकी संख्या निश्चित की है, वह जिस-जिस तत्त्वदृष्टिका उदय होनेपर निवृत्त हो जाती है, वह भी वस्तुतः आपका ही स्वरूप है; ऐसे सांख्य-सिद्धान्तस्वरूप आपको मेरा नमस्कार है ॥ 4 ll

इस प्रकार अर्यमा हिरण्मयवर्षक अन्य अधीश्वरोंके साथ सभी प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले कूर्मरूप देवेश्वर भगवान् श्रीहरिकी स्तुति, उनका गुणानुवाद | तथा भजन करते हैं ॥ 5 ॥उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीदेवी आदिवराहरूप यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरिकी निरन्तर उपासना करती हैं ॥ 6 ॥ प्रेमरससे परिपूर्ण हृदयकमलवाली वे पृथ्वीदेवी
दैत्योंका नाश करनेवाले यज्ञवराह श्रीहरिकी विधिपूर्वक
पूजा करके भक्तिभावसे उनकी स्तुति करती हैं ॥ 7 ॥

पृथ्वी बोलीं- मन्त्रोंके द्वारा ज्ञेय तत्त्वोंवाले, यज्ञ तथा क्रतुस्वरूप, बड़े-बड़े यज्ञरूप अवयवोंवाले, सात्त्विक कर्मोंवाले तथा त्रियुगमूर्तिरूप आप ओंकार स्वरूप भगवान् महावराहको बार-बार नमस्कार है ॥ 8 ॥

काष्ठोंमें छिपी हुई अग्निको प्रकट करनेके लिये मन्थन करनेवाले ऋत्विज्-गणोंकी भाँति परम प्रवीण विद्वान् पुरुष कर्मासक्ति एवं कर्मफलकी कामनासे छिपे हुए जिनके रूपको देखनेकी इच्छासे अपने विवेकयुक्त मनरूपी मथानीद्वारा शरीर एवं इन्द्रियोंको मथ डालते हैं; इस प्रकार मन्थनके पश्चात् अपने रूपको प्रकट करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 9 ॥

हे प्रभो ! विचार तथा यम-नियमादि योगांगोंके साधनोंके प्रभावसे निश्चयात्मिका बुद्धिवाले महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रियाहेतु (इन्द्रिय-व्यापार), अयन (शरीर), ईश और कर्ता (अहंकार) आदि मायाके कार्योंको देखकर जिनके वास्तविक स्वरूपका निश्चय करते हैं; ऐसे मायिक आकृतियोंसे रहित आपको नमस्कार है ॥ 10 ॥

जिसकी इच्छामात्रसे नि:स्पृह होती हुई भी प्रकृति गुणोंके द्वारा जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कार्यमें इस प्रकार प्रवृत्त हो जाती है, जैसे चुम्बकका सम्पर्क पाकर लोहा गतिशील हो जाता है; उन आप सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मोंके साक्षी श्रीहरिको नमस्कार है ॥ 11 ॥

जिन्होंने एक हाथीको पछाड़नेवाले दूसरे हाथीकी भाँति युद्धके अवसरपर खेल खेलमें प्रतिद्वन्द्वी दैत्य हिरण्याक्षका लीलापूर्वक हनन करके मुझे अपने दाढ़ोंके अग्रभागपर उठाकर रसातलसे बाहर निकाल लिया, उन जगत्के आदिकारणस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वराहको नमस्कार है ॥ 12 ॥किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जी सम्पूर्ण जगत्के शासक आदिपुरुष दशरथपुत्र भगवान् श्रीसीतारामकी इस प्रकार स्तुति करते हैं ॥ 13 ॥

हनुमान् बोले- उत्तम कीर्तिवाले ओंकारस्वरूप भगवान् श्रीरामको नमस्कार है। श्रेष्ठ पुरुषोंके लक्षण, शील और व्रतसे सम्पन्न श्रीरामको नमस्कार है; संयत चित्तवाले तथा लोकाराधनमें तत्पर श्रीरामको नमस्कार है; साधुताकी परीक्षाके लिये कसौटीस्वरूप श्रीरामको नमस्कार है; ब्राह्मणोंके परम भक्त एवं महान् भाग्यशाली महापुरुष श्रीरामको नमस्कार है।

जो विशुद्ध बोधस्वरूप, अद्वितीय, अपने तेजसे गुणोंकी जाग्रत् आदि अवस्थाओंका निवारण करनेवाले, सर्वान्तरात्मा, परम शान्त, निर्मल बुद्धिके द्वारा ग्रहण किये जानेयोग्य, नाम-रूपसे रहित तथा अहंकारशून्य हैं; उन आप भगवान्‌की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ 14 ॥

हे प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसों के वधके लिये ही नहीं है, अपितु इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्योंको शिक्षा देना है; अन्यथा, अपने स्वरूपमें ही रमण करनेवाले साक्षात् आप जगदीश्वरको सीताजीके वियोगमें इतना दुःख कैसे हो सकता था ॥ 15 ॥

आप धीर पुरुषोंके आत्मा' और प्रियतम भगवान् वासुदेव हैं; त्रिलोकीकी किसी भी वस्तुमें आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीताजीके लिये मोहको ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मणजीका त्याग ही कर सकते हैं ।। 16 ।।न उत्तम कुलमें जन्म, न सुन्दरता, न वाक्चातुर्य, न तो बुद्धि और न तो श्रेष्ठ योनि ही आपकी प्रसन्नताके कारण हो सकते हैं; यही बात दिखानेके लिये हे लक्ष्मणाग्रज ! आपने इन सभी गुणोंसे रहित हम वनवासी वानरोंसे मित्रता की है ॥ 17 ॥

देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य जो कोई भी हो, उस उपकारीके थोड़े उपकारको भी बहुत अधिक माननेवाले, नररूपधारी श्रेष्ठ श्रीरामस्वरूप आप श्रीहरिका सब प्रकारसे भजन करना चाहिये, जो दिव्य धामको प्रस्थान करते समय सभी उत्तरकोसलवासियोंको भी अपने साथ लेते गये थे ॥ 18 ॥

श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] इस प्रकार किम्पुरुषवर्षमें वानरश्रेष्ठ हनुमान् सत्यप्रतिज्ञ, दृढव्रती तथा कमलपत्रके समान नेत्रोंवाले भगवान् श्रीरामकी भक्तिपूर्वक स्तुति करते हैं, उनके गुण गाते हैं तथा भलीभाँति उनकी पूजा करते हैं। जो पुरुष भगवान् श्रीरामचन्द्रके इस अद्भुत कथाप्रसंगका श्रवण करता है; वह पापोंसे मुक्त होकर विशुद्ध आत्मावाला हो जाता है और श्रीरामके परम धामको प्राप्त होता है ॥ 19-20॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन