प्रेमी भक्तके मनमें अपने प्रियतम भगवान्के सिवा अन्य किसीके होनेकी ही कल्पना नहीं होती, तब वह दूसरेका भजन कैसे करे ? वह तो चराचर विश्वको अपने प्रियतमका शरीर जानता है, उसे कहीं दूसरा दीखता ही नहीं—
उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥
रहीम कहते हैं...
कि आँखोंमें प्यारेकी मधुर छबि ऐसी समा रही है कि दूसरी किसी छबिके लिये स्थान ही नहीं रह गया
प्रीतम - छबि नैनन बसी, पर छबि कहाँ समाय ।
भरी सराय 'रहीम' लखि, आप पथिक फिरि जाय ॥
गोपियोंकी सर्वत्र श्याममयी चित्तवृत्तिका वर्णन करते हुए श्रीदेवकविने कहा है
औचक अगाध सिंधु स्याहीकौ उमड़ आयो, तामें तीनों लोक बूड़ि गए एक संगमें।
कारे-कारे आखर लिखे जु कारे कागद सु न्यारे करि बाँचै कौन जाँचै चितभंगमें ॥
आँखिनमें तिमिर अमावसकी रैन जिमि, जंबूनद-बुंद जमुना- जल-तरंगमें।
यों ही मन मेरो मेरे कामकौ न रह्यो माई, स्याम रँग है करि समानो स्याम रंगमें ॥
यदि कोई उससे दूसरेकी बात कहता है तो वह उसे सुनना ही नहीं चाहता या उसे सुनायी ही नहीं पड़ती। यदि कहीं जबरदस्ती सुननी पड़ती भी है तो उसका मन उधर आकर्षित होता ही नहीं । शिवजीकी अनन्योपासिका पार्वतीजीको सप्तर्षियोंने महादेवजीके अनेक दोष बतलाकर उनसे मन हटाने और सर्वसद्गुणसम्पन्न भगवान् विष्णुमें मन लगाने को कहा, तब शिवप्रेमकी मूर्ति भगवती ने उत्तर दिया...
जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ॥
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥
इसी तरह गोपियोंने भी उद्धवजीसे कहा था...
ऊधौ ! मन मानेकी बात । दाख छोहारा छाड़ि अमृतफल बिषकीरा बिष खात ॥
जो चकोरको दै कपूर कोउ तजि अंगार अघात । मधुप करत घर कोरे काठमें बँधत कमलके पात ॥
ज्यों पतंग हित जानि आपनो, दीपकसों लपटात । 'सूरदास' जाको मन जासों, ताको सोइ सुहात ॥
इस प्रकार प्रेमी भक्त एकमात्र अपने प्रियतम भगवान्को ही जानकर, उसीको सर्वस्व मानकर, जैसे मछलीको केवल जलका आश्रय होता है, वैसे ही केवल भगवान्का ही आश्रय लेकर सारी। चेष्टाएँ उसीके लिये करता है।
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास ।
एक राम घनस्याम हित चातक 'तुलसीदास ' ॥
वह चातककी टेककी भाँति केवल भगवान्में ही चित्त लगाये, सम्पूर्णरूपसे उसीपर निर्भर करता हुआ, उसीके लिये शरीर धारण करता है। उसका खाना-पीना, सोना-बैठना, चलना-फिरना, देना लेना, दान-पुण्य करना, सब कुछ उसीके लिये होता है। अतएव उसके समस्त कर्म भगवान्के प्रति अनन्य प्रेमभावसे सम्पन्न होनेके कारण स्वाभाविक ही कल्याणमय होते हैं।