अनन्य भावसे भगवदर्थ कर्म करनेवालेके लिये भगवान्के प्रतिकूल कर्मोंका अपने-आप ही त्याग हो जाता है। वैदिक या लौकिक ( श्रौत या स्मार्त), कोई भी ऐसा कर्म वह नहीं कर सकता जो भगवान् के अनुकूल न हो, यानी जिससे प्रेमाभक्तिकी वृद्धिमें सहायता न पहुँचती हो ।
पुत्रके लिये माता-पिताकी, स्त्रीके लिये स्वामीकी और शिष्यके लिये गुरुकी आज्ञा मानना वेद और लोक-धर्मके अनुसार सर्वथा कर्तव्य है;
परन्तु उनकी आज्ञा भी यदि भगवत्-प्रेमसे विरुद्ध है तो प्रेमी भक्त कष्ट सहकर भी उसका त्याग कर देता है, क्योंकि उसके द्वारा अपने प्यारेके प्रतिकूल आचरण होना असम्भव है।
गोस्वामी जी महाराज ने उदाहरण देते हुए कहा है...
जाके प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥
प्रह्लादने भगवान् के प्रतिकूल पिताकी आज्ञा नहीं मानी, विभीषणने भाईका साथ छोड़ दिया, भरतजी माताकी आज्ञाको टाल गये, राजा बलिने गुरु शुक्राचार्यकी बात नहीं सुनी और व्रजवनिताओंने पतियोंकी आज्ञापर ध्यान नहीं दिया और ये सभी जगत्के लिये कल्याणकारी हुए।
कर्म चार प्रकारके होते हैं—नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध । इनमें मद्य-मांस सेवन, चोरी, व्यभिचार आदि निषिद्ध कर्म तो सभी के लिये त्याज्य हैं। शास्त्रीय काम्य (सकाम) कर्म बन्धनकारक तथा जन्म-मृत्युके चक्र में डालनेवाले होनेके कारण 'काम्यानां कर्मणां न्यासम्' इस भगवत्-वचनानुसार त्याज्य हैं। रहे नित्य और नैमित्तिक कर्म, इनको लौकिक और वैदिक विधिके अनुसार फलासक्ति छोड़कर केवल भगवान्के आज्ञानुसार भगवत्प्रीत्यर्थ करना चाहिये । भगवत् - प्रीत्यर्थ वही कर्म होते हैं जो भगवान्के प्रति प्रेम बढ़ाने वाले हों ।
गीता के अनुसार...
आसक्ति और फलाशा छोड़कर मन, वाणी और शरीर से भगवान् के अनुकूल कर्म करना और प्रतिकूल कर्मोंका त्याग करना ही विरोधी कर्मोंमें उदासीनता है।
प्रेमाभक्तिकी उन्मादमयी स्थिति प्राप्त न होनेतक ऐसे भगवदनुकूल कर्म प्रेमी भक्तके द्वारा स्वाभाविक हुआ ही करते हैं।