प्रेमकी बाह्यज्ञानशून्य, विधि-निषेधसे अतीत सिद्धावस्था में लौकिक और वैदिक कर्मोंका त्याग अपने-आप ही हो जाता है, जान-बूझकर किया नहीं जाता।
इसलिये जबतक प्रेमकी वैसी, सब कुछ भुला देनेवाली स्थिति प्राप्त न हो जाय तबतक प्रेमके नामपर शास्त्रविहित कर्मोंका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। शास्त्रके अनुसार भगवान्के अर्पणबुद्धिसे भगवदनुकूल नित्य नैमित्तिक कर्म और श्रवण-कीर्तनादिरूप भजन करते-करते ही भगवान्का वह परमोच्च प्रेम प्राप्त होता है।
भगवान् स्वयं आज्ञा करते हैं...
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥
(गीता 16.24)
अतः तुम्हारे लिये क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये- इसकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है, यह जानकर तुम्हें शास्त्रविधिके अनुसार ही कर्म करना चाहिये ।