जो मनुष्य जान-बूझकर शास्त्रोंकी आज्ञाका पालन न करके शास्त्रके प्रतिकूल, अमर्यादित कार्य करता है और उसे प्रेमका नाम देकर दोषमुक्त होना चाहता है, वह अवश्य ही गिर जाता है।
भगवान्ने स्वयं कहा है...
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
(गीता 16.23)
'जो मनुष्य शास्त्रकी विधिको छोड़कर मनमाना स्वेच्छाचार करता है वह न सिद्धि पाता है, न परम गति पाता है और न उसे सुखकी ही प्राप्ति होती है।' जान-बूझकर शास्त्रविहित कर्मोंका त्याग करना प्रेमका आदर्श नहीं है, मोह है, उच्छृंखलता और स्वेच्छाचार है। ऐसा करनेवाला परिणाममें आसुरी योनि, नरक और दुःखों को ही प्राप्त होता है।