श्रीभगवान्की दिव्य लीला, महिमा, उनके गुण और नामोंके कीर्तन तथा श्रवणमें मन लगाना निस्सन्देह भक्तिका प्रधान लक्षण है। संसारमें अधिकांश मनुष्य तो ऐसे हैं जिन्हें भगवान् और भगवान्की कथासे कोई मतलब ही नहीं है। दिन-रात विषय चर्चामें ही उनका जीवन बीतता है। न तो वे कभी भगवान्का गुणगान करते हैं और न उन्हें भगवच्चर्चा सुहाती है। 'श्रवण न रामकथा अनुरागी।'
इस अवस्थामें जिन मनुष्योंका मन भगवान्के गुणानुवाद सुनने और कहने में लगा रहता है वे अवश्य ही भक्त हैं।
श्रीनारदजी ने स्वयं महर्षि वेदव्यास से कहा है...
विद्वानोंने यही निरूपित किया है कि भगवान्का गुणानुवाद कीर्तन ही तप, वेदाध्ययन, भलीभाँति किये हुए यज्ञ, मन्त्र, ज्ञान और दान आदि सबका अविनाशी फल है।'
श्रीरामचरितमानसमें कहा है...
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी ॥
भव सागर चह पार जो पावा । राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥
अतएव श्रीहरिकथामें यथार्थ अनुराग होना भक्ति है और इस भक्तिसे भगवान्की प्राप्ति निश्चय ही हो जाती है।