अविच्छिन्न रूप से शुद्ध आत्मस्वरूप में रत रहना ही आत्मरति है; इस आत्मरतिमें नित्य स्थित रहनेको ही अव्यक्तोपासक महानुभाव भक्ति कहते हैं।
श्रीशंकराचार्यजीने कहा है...
भक्तिरित्यभिधीयते भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वस्वरूपानुसन्धानं मोक्षकारणसामग्रयां ॥
आत्मरूपसे प्रत्येक प्राणीमें श्रीभगवान् ही विराजमान हैं, अतः उन सर्वात्मामें रति होना वस्तुतः भगवान्की भक्ति ही है और ऐसी भक्ति करनेवालेको मुक्ति प्राप्त होनेमें कोई सन्देह नहीं ।