नारदजीको महर्षि व्यास, गर्ग और शाण्डिल्य-कथित भक्तिके लक्षणोंसे कोई विरोध नहीं है। भगवान्की पूजा करना, भगवान्के गुणगान करना और सर्वात्मरूप भगवान्में प्रेम करना उचित और आवश्यक है। व्यासजी को तो भगवद् गुणगान में श्रीनारद ने ही लगाया था। अतः इन लक्षणोंका खण्डन करने या इन्हें तुच्छ बतलानेके लिये नहीं, परन्तु इन्हींको और भी पुष्ट करनेके लिये नारदजी इन सभी लक्षणोंसे युक्त एक सर्वांगपूर्ण भक्तिका लक्षण निर्देश करते हुए कहते हैं कि अपने समस्त कर्म, (वैदिक और लौकिक) भगवान्में अर्पण करके प्रियतम भगवान्का अखण्ड स्मरण करना और पलभरके लिये भी उनका यदि विस्मरण हो जाय (प्रियतमको भूल जाय) तो परम व्याकुल हो जाना, यही सर्वलक्षणसम्पन्न भक्ति है। इसमें पूजा कथामें अनुराग और विश्वात्मा भगवान्में रति तो रहती ही है।
भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीतामें सब प्रकारके योगियोंमें इन्हीं लक्षणों से युक्त भक्ति-योगीको सर्वोत्तम बतलाया है...
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
'तपस्वियोंसे, शास्त्र - ज्ञानियों से और सकाम कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है; अतएव हे अर्जुन! तू योगी बन। परन्तु सम्पूर्ण योगियों में भी वह भक्ति-योगी मेरे मतमें परम श्रेष्ठ है जो मुझमें श्रद्धावान् है और अन्तरात्माको मुझमें लगाकर निरन्तर मुझे भजता है। '
भगवान्ने फिर आज्ञा की है -
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्
(गीता 8। 7)
'इसलिये हे अर्जुन! तू सब समय (बिना विराम) मेरा स्मरण कर और (स्मरण करता हुआ ही मेरे लिये ही) युद्ध कर। इस प्रकार मुझमें ही मन-बुद्धि अर्पण करके तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।'
मानापमान, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुःख आदिकी परवा न करके, आसक्ति और फलकी इच्छा छोड़कर, शरीर और संसार में अपने लिये अहंता-ममतासे रहित होकर, एकमात्र परम प्रियतम श्रीभगवान्को ही परम आश्रय, परम गति, परम सुहृद् समझकर, अनन्यभावसे, अत्यन्त श्रद्धाके साथ, प्रेमपूर्वक निरन्तर तैलधारावत् उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूपका चिन्तन करते हुए परमानन्दमें मग्न रहना और इस प्रकार चिन्तनपरायण रहते हुए ही केवल उन परम प्रियतम भगवान्के लिये, उनकी रुचि तथा इच्छाके अनुसार, उन्हींके प्रीत्यर्थ, उन्हींको सुख पहुँचानेके दृढ़ और परम स्वार्थसे प्रेरित होकर, सर्वथा निःस्वार्थभावसे समस्त दैहिक, वाचिक और मानसिक कर्मोंका आचरण करना। यदि किसी कारणवश क्षणभरके लिये भी उनका चिन्तन-स्मरण छूट जाय तो जलसे निकाली हुई। मछलीसे भी अनन्तगुणा अधिक व्याकुलताका अनुभव करना, यही सर्वोच्च भक्ति है।
ऐसा पूर्ण समर्पणकारी प्रेमी भक्त त्रैलोक्यके राज्यसुखकी तो बात ही क्या है, अपुनरावर्त्ती मोक्षके लिये भी, किसी भी हालतमें अपने प्रियतम भगवान्का स्मरण छोड़ना नहीं चाहता।
भगवान् ऐसे भक्तकी प्रशंसा करते हुए भक्त उद्धवसे कहते हैं...
' हे उद्धव इस प्रकारके तुम भक्त मुझको जैसे प्रिय हो, वैसे प्रिय ब्रह्मा, शंकर, बलराम, लक्ष्मी और अपनी आत्मा भी नहीं है। ऐसे किसी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले, शान्तचित्त, निर्वैर, सर्वत्र समभावसे मुझको देखनेवाले और निरन्तर मेरा मनन करनेवाले प्रेमी भक्तोंकी चरणरजसे अपनेको पवित्र करनेके लिये मैं सदा-सर्वदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ । मुझमें चित्तको अनुरक्त कर रखनेवाले, सर्वस्व मुझको अर्पण करके अकिंचन बने हुए ऐसे शान्त और मेरे नाते सब जीवोंके प्रति स्नेह करनेवाले तथा सब प्रकारकी कामनाओंसे शून्य हृदयवाले महात्मा जिस परमसुखका अनुभव करते हैं, उस निरपेक्ष परमानन्दको दूसरे लोग नहीं जानते।'
बस, श्रीनारदजीके मतसे यही भक्ति है। ऐसा भक्त समस्त आचरण श्रीभगवान्के अर्पण करके अनवच्छिन्नरूपसे भगवत्स्मरण करता रहता है और कहीं तनिक भी भूल जानेपर परम व्याकुल हो जाता है।