भक्ति अनेक प्रकार बतलाये गये हैं, परंतु नारदजी जिस भक्तिकी व्याख्या करते हैं वह प्रेमस्वरूपा है। भगवान्में अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है। ज्ञान, कर्म आदि साधनोंके आश्रयसे रहित और सब ओरसे स्पृहाशून्य होकर चित्तवृत्ति अनन्य भावसे जब केवल भगवान्में ही लग जाती है; जगत्के समस्त पदार्थोंसे तथा परलोककी समस्त सुखसामग्रियोंसे, यहाँतक कि मोक्ष सुखसे भी चित्त हटकर एकमात्र अपने परम प्रेमास्पद भगवान्में लगा रहता है।
सारी ममता और आसक्ति सब पदार्थोंसे सर्वथा निकलकर एकमात्र प्रियतम भगवान्के प्रति हो जाती है, तब उस स्थितिको 'अनन्य प्रेम' कहते हैं।