भक्तिका लक्षण बतलाकर अब देवर्षि उदाहरणमें प्रेमिका शिरोमणि प्रातःस्मरणीया श्रीगोपिकाओंका नाम लेते हैं। वस्तुतः गोपियोंकी ऐसी ही महिमा है। जगत्में ऐसा कौन है जो गोपियोंके प्रेमके तत्त्वका बखान कर सके ? उनका तन, मन, धन, लोक, परलोक सब श्रीकृष्णके अर्पित था। वे दिन-रात श्रीकृष्णका ही चिन्तन करतीं, गद्गद वाणीसे निरन्तर श्रीकृष्णका ही गुणगान करतीं और सर्वत्र सर्वदा श्रीकृष्णको ही देखा करती थीं।
स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा है...
'हे गोपिकाओ ! तुमने मेरे लिये गृहस्थकी कठिन बेड़ियोंको तोड़कर मेरा भजन किया है। तुम्हारा यह कार्य सर्वथा निर्दोष है। मैं देवताओंकी आयुपर्यन्त भी तुम्हारे इस उपकारका बदला नहीं सकता। तुम अपनी उदारतासे ही मुझे ऋणमुक्त करना।'
उद्भवको सँदेसा देकर भेजते समय भगवान् श्रीकृष्णने प्रेमाश्रु बहाते हुए गद्गद वाणीसे कहा था...
'हे उद्धव गोपियोंने अपना मन मुझको समर्पण कर दिया है, मैं ही उनके प्राण हूँ, मेरे लिये उन्होंने अपने देहके सारे व्यवहार छोड़ दिये हैं। जो लोग मेरे लिये समस्त लौकिक धर्मोंको छोड़ देते हैं, उनको मैं सुख पहुँचाता हूँ। वे गोपियाँ मुझको प्रियसे भी अति प्रिय समझती हैं, मेरे दूर रहनेपर मुझे स्मरण करके वे दारुण विरहवेदनासे व्याकुल होकर अपने देहकी सुधि भूल जाती हैं। मेरे बिना वे बड़ी ही कठिनतासे किसी प्रकार प्राण धारण कर रही हैं, मेरे पुनः व्रज जानेके सन्देशके आधारपर ही वे जी रही हैं। मैं उन गोपियोंकी आत्मा हूँ और वे मेरी हैं। '
उद्धवने व्रजमें आकर जब प्रेममयी गोपियोंकी दशा देखी, उन्हें सब ओर, बाहर-भीतर श्रीकृष्णके दर्शन करते पाया और जब उनके मुखसे सुना....
[1]
नाहिन रह्यो हियमहँ ठौर ।
नंदनंदन अछत कैसे आनिये उर और ॥
चलत चितवत दिवस जागत, सुपन सोवत रात ।
हृदयते वह स्याम मूरति छिन न इत उत जात ॥
कहत कथा अनेक ऊधौ ! लोक-लाज दिखात।
कहा करौं तन प्रेमपूरन घट न सिंधु समात ॥
स्याम गात सरोज आनन, ललित गति मृदु हास ।
'सूर' ऐसे रूप कारन मरत लोचन प्यास ॥
[2]
ऊधौ ! जोग जोग हम नाहीं । अबला ग्यान सार कहा जानें, कैसे ध्यान धराहीं ॥
ते ये मूँदन नैन कहत हौ, हरि मूरति जिन माहीं ।
ऐसी कथा कपटकी मधुकर हमते सुनी न जाहीं ॥
स्स्रवन चीर अरु जटा बँधावहु, ये दुख कौन समाहीं ।
चंदन तजि अँग भसम बतावत, बिरह अनल अति दाहीं ॥
जोगी भरमत जेहि लगि भूले, सो तो है हम पाहीं ।
'सूरदास' सो न्यारो न पल छिन, ज्यों घटते परिछाहीं ॥
गोपियोंने कहा....
'उद्धवजी! योग उन्हें जाकर सिखाओ, जहाँ श्यामसुन्दरका वियोग हो । यहाँ तो देखो, सदा ही संयोग है; हमारा प्यारा श्याम सदा-सर्वदा हमारे साथ ही रहता है।'
तब उद्धवकी आँखें खुलीं... वे गोपियोंके शुद्ध प्रेमके प्रबल प्रवाहमें बह गये!
सुनि गोपीके बैन, नेम ऊधौके भूले ।
गावत गुन गोपाल फिरत कुंजनमें फूले ॥
खिन गोपिनके पग परै, धन्य सोइ है नेम ।
धाइ धाइ द्रुम भेंटही, ऊधौ छाके प्रेम ॥
उन्होंने भक्तिप्रणत चित्तसे कहा ....
'जगत्में इन गोपललनाओंका ही देह धारण करना सफल है, क्योंकि इनका चित्त विश्वात्मा भगवान् श्रीगोविन्दमें लगा हुआ है, जिनकी भवभयसे भीत हुए मुनिगण तथा हमलोग सभी इच्छा करते हैं। सत्य है, जो श्रीअनन्तकी लीला-कथाओंके रसिक हैं, उन्हें ब्राह्मणोंके तीनों जन्मों (जन्म, यज्ञोपवीत और यज्ञदीक्षा) - की क्या आवश्यकता है? रासलीलाके समय भगवान् श्रीहरिके भुजदण्डको कण्ठहार बनाकर पूर्णकाम हुई इन व्रजबालाओंको श्रीहरिका जो प्रसाद प्राप्त हुआ है, वैसा निरन्तर हृदयमें रहनेवाली श्रीलक्ष्मीजी और कमलकी-सी कान्ति और सुगन्धिसे युक्त सुरसुन्दरियोंको भी नहीं मिला; फिर औरोंकी तो बात ही क्या है ? इन महाभागा गोपियोंने कठिनतासे छोड़े जा सकनेवाले बन्धुओंको और आर्यधर्मको त्यागकर श्रुति जिसकी खोज करती हैं, उस मुकुन्दपदवीका अनुसरण किया है। अहो ! क्या ही उत्तम हो, यदि मैं आगामी जन्ममें इस वृन्दावनकी लता, ओषधि या झाड़ियों में से कोई होऊँ, जिनपर इन गोपियोंकी चरणधूलि पड़ती है।'
मथुराकी कुलांगनाओंने गोपियोंकी दशाका वर्णन करके उनके जीवनको धन्य बताते हुए कहा है..
'जो गोपियाँ गायोंका दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकोंको झुलाते समय, रोते हुए बच्चोंको लोरी देते समय, घरोंमें छिड़काव करते तथा झाड़ू देते समय प्रेमपूर्ण चित्तसे, आँखोंमें आँसू भरे, गद्गद वाणीसे श्रीकृष्णके गुणगान किया करती हैं, उन श्रीकृष्णमें चित्त निवेशित करनेवाली गोपरमणियोंको धन्य है !'
इन गोपियोंकी जितनी महिमा गायी जाय, उतनी ही थोड़ी है। सर्वत्यागी व्रजवासी भक्तोंने तो गोपीपद-पंकजपराग ही बनना चाहा है। सत्य ही कहा है गोपी प्रेमकी धुजा ।
जिन घनस्याम किये बस अपने उर धरि स्यामभुजा ॥ महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव सदृश महान् त्यागी महापुरुषोंने तो गोपियों को प्रेममार्गका गुरु माना है।
महान् भक्त श्रीनागरीदासजी कहते हैं ...
जयति ललितादि देवीय व्रज श्रुतिरिचा,
कृष्ण प्रिय केलि आधीर अंगी ।
जुगल-रस-मत्त आनंदमय रूपनिधि,
सकल सुख समयकी छाँह संगी॥
गौरमुख हिमकरनकी जु किरनावली,
स्रवत मधु गान हिय पिय तरंगी ।
'नागरी' सकल संकेत आकारिनी,
गनत गुनगननि मति होति पंगी ॥