अर्थात् गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णके प्रभाव, रहस्य और गुणोंको जानती थीं। कुछ लोगोंका कहना है कि प्रेममें माहात्म्यज्ञान नहीं रहता। माहात्म्यज्ञान होगा तो प्रेम नहीं रहेगा, परन्तु गोपियोंमें ऐसी बात नहीं थी। गोपियाँ श्रीकृष्णको साक्षात् पुरुषोत्तमभगवान् जानती हुई ही अपना प्रियतम समझती थीं। लौकिक प्रेम और भगवत्प्रेममें यही खास भेद है। भगवत्प्रेममें वस्तुतः ऐसा ही होता है।
जो लोग कहते हैं कि गोपियाँ श्रीकृष्णको भगवान् नहीं जानती थीं, वे श्रीमद्भागवतके नीचे लिखे श्लोकोंका मनन करें...
मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
संत्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् ।
भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्
देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून् ॥ यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् । अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ॥
यर्ह्यम्बुजाक्ष तव पादतलं रमाया
दत्तक्षणं क्वचिदरण्यजनप्रियस्य ।
अस्प्राक्ष्म तत्प्रभृति नान्यसमक्षमंग
स्थातुं त्वयाभिरमिता बत पारयामः ॥
श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या
लब्ध्वापि वक्षसि पदं किल भृत्यजुष्टम् ।
यस्याः स्ववीक्षणकृतेऽन्यसुरप्रयास
स्तद्वद् वयं च तव पादरजः प्रपन्नाः ॥
(10।29।31-32. 36-37)
व्यक्तं भवान् व्रजभयार्तिहरोऽभिजातो
देवो यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।
(10।29।41)
न खलु गोपिकानन्दनो भवा
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥
(10।33।4)
'हे विभो ! आप ऐसे कठोर शब्द (वापस जानेकी बात) न कहिये। हमने अन्य सम्पूर्ण विषयोंको छोड़कर एकमात्र आपके ही चरणकमलोंका आश्रय लिया है। हे स्वछन्द! जिस प्रकार आदिपुरुष श्रीनारायण मुमुक्षुओंको भजते हैं, उनके इच्छानुसार उन्हें स्वीकार करते हैं) उसी प्रकार आप हमें अंगीकार कीजिये, त्यागिये नहीं । हे हरि ! आप धर्मको जाननेवाले हैं (फिर आप कैसे कहते हैं कि तुमलोग लौट जाओ, आपकी शरण आनेपर भी क्या कोई कभी वापस लौटता है)। आपने जो कहा कि पति, पुत्र और बन्धु-बान्धवोंकी सेवा करना ही स्त्रियोंका परम धर्म है, सो यह उपदेश उपदेशके स्थान आप ईश्वरके विषयमें ही रहे; क्योंकि समस्त देहधारियोंके प्रियतम बन्धु और आत्मा तो आप ही हैं।
हे कमललोचन! जिस समय श्रीलक्ष्मीजीको (श्रीविष्णुरूपमें) कभी-कभी आनन्दित करनेवाले आपके चरण कमलोंको हमने स्पर्श किया था और वनवासी तपस्वियोंके प्रिय आपने हमें आनन्दित किया था, तभीसे हमारे लिये अन्यत्र कहीं ठहरना असम्भव हो गया है। जिनकी कृपादृष्टि पानेके लिये देवगण अत्यन्त प्रयास करते हैं, वे लक्ष्मीजी बिना किसी प्रतिद्वन्द्वीके आपके वक्षःस्थलमें स्थान पाकर भी तुलसीजीके सहित अन्य भक्तोंसे सेवित आपकी चरणरजकी इच्छा करती हैं, हम भी निस्सन्देह आपकी उसी चरणरजकी ही शरणमें आयी हैं। क्योंकि देवताओंकी रक्षा करनेवाले आप आदिपुरुष परमात्मा ही व्रजमण्डलका भय और दुःख दूर करनेके लिये प्रकट होकर अवतीर्ण हुए हैं। यह निश्चय है कि आप केवल यशोदाके ही पुत्र नहीं हैं, वरं समस्त देहधारियोंके अन्तरात्माके साक्षी हैं।
हे सखे! ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे ही आपने सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेके लिये यदुकुलमें अवतार लिया है। ' ऐसे अनेकों प्रमाणोंसे तथा युक्तियोंसे यह सर्वथा सिद्ध है कि गोपियोंने श्रीकृष्णको साक्षात् सच्चिदानन्दघन भगवान् समझकर ही उन्हें आत्मसमर्पण किया था।