व्यभिचारी मनुष्य कामवश होकर केवल अपने सुखके लिये, अपनी इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये प्रीति किया करते हैं; वे अपने प्रेमास्पदके सुखसे सुखी नहीं होते। गोपियोंके प्रेममें यह भाव नहीं था। लौकिक कामजनित प्रीतिमें प्रेमास्पद पुरुष जार होता है और उसके अंग-संगकी इच्छा होती है। यहाँ प्रेमास्पद साक्षात् विश्वात्मा भगवान् थे और गोपियोंके मनोंमें अंग-संगकी कामना नहीं थी। गोपियाँ केवल श्रीकृष्ण-सुखकी अभिलाषिणी थीं। उन्होंने अपना तन, मन, बुद्धि, रूप, यौवन, धन, प्राण आदि सम्पूर्ण वस्तुओंको प्रियतम श्रीकृष्णकी पूजन-सामग्री बना दिया था। अपना सर्वस्व देकर वे श्रीकृष्णको सुख पहुँचाना चाहती थीं। जिस बातमें श्रीकृष्णकी प्रसन्नता होती, वही करना उनका धर्म था। उसीमें उन्हें परम सुखकी अनुभूति होती थी। इसके अतिरिक्त उनके मनमें अन्य प्रकार से होनेवाले सुखकी कामना तो दूर रही, कल्पना भी नहीं थी। यही तो काम और प्रेमका अन्तर है। काम चाहता है दूसरेके द्वारा अपने सुखी होना, और प्रेम चाहता है अपने द्वारा प्रियतमको सुखी करना और उसे सुखी देखकर ही सुखी होना । श्रीचैतन्यचरितामृतमें गोपियोंके प्रेमका वर्णन करते हुए बहुत ही ठीक कहा गया है—
आत्मेन्द्रिय प्रीति- इच्छा, तार नाम काम । कृष्णेन्द्रिय प्रीति इच्छा धरे प्रेम नाम ॥ कामेर तात्पर्य निज संभोग केवल कृष्ण-सुख तात्पर्य प्रेम तो प्रबल ॥ आत्म-सुख-दुःख गोपी ना करे विचार कृष्ण-सुख हेतु करे सब व्यवहार ।। लोकधर्म, वेदधर्म, देहधर्म कर्म लज्जा, धैर्य, देहसुख, आत्मसुख मर्म ॥ सर्व त्याग करये करे कृष्णेर भजन । कृष्णसुख हेतु करे प्रेमेर सेवन ॥ इहाके कहिये कृष्णे दृढ़ अनुराग स्वच्छ धौत वस्त्र जैसे नाहिं कोन दाग ॥ अतएव काम प्रेमे बहुत अंतर काम अंधतम प्रेम निर्मल भास्कर ॥ अतएव गोपीगणे नाहि कामगंध कृष्णसुख हेतु मात्र कृष्णेर संबंध ॥
भगवान् श्रीकृष्णको सर्वस्व अर्पण, पलभरके लिये भूल जानेमें परम व्याकुलता, श्रीकृष्णके प्रभाव और माहात्म्यका सम्यक् ज्ञान और श्रीकृष्णके सुखमें ही सुखी होना, यही चार बातें गोपी-प्रेममें मुख्य हैं।
यह गोपी-प्रेम परम पवित्र और अलौकिक है। इसमें जो पाप या व्यभिचार देखते हैं, उनपर श्रीकृष्ण दया करें।