कर्म, ज्ञान और योग तीनों ही भगवत्प्राप्तिके साधन हैं, परन्तु भक्ति इन तीनोंमें सबसे श्रेष्ठ है। उनमें वर्ण, आश्रम, अधिकार आदिका विचार है; साथ ही गिरनेका भय भी है, परन्तु सच्ची भक्तिमें भगवान् की पूरी सहायता रहनेके कारण कोई भी भय नहीं है तथा इसमें स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, शूद्र आदि सभीका अधिकार है।
गोसाईं तुलसीदासजी महाराज कहते हैं...
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी । खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी। पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम ।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥
पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन ।
यह बिचारि मुनि पुनि पुनि करत राम गुन गान ॥
स्वयं श्रीभगवान् कहते हैं...
(श्रीमद्भा0 11 1420-21) 'जिस प्रकार मेरी दृढभक्ति मुझे वश करती है, उस प्रकार मुझको योग, ज्ञान, धर्म, स्वाध्याय, तप और त्याग वशमें नहीं कर सकते। सन्तोंका प्रिय आत्मारूप मैं केवल श्रद्धायुक्त भक्तिके द्वारा वशमें हो सकता हूँ, मेरी भक्ति चाण्डाल आदिको भी पवित्रहृदय बनानेमें समर्थ है।'
इसी प्रकार श्रीभगवान्ने गीतामें भी कहा है...
'हे अर्जुन! जैसा तुमने मुझको देखा है, ऐसा वेद, तप, दान, यज्ञ आदिसे मैं नहीं देखनेमें आता। हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक् तिके द्वारा ही इस प्रकार मेरा देखा जाना, मुझे तत्त्वसे जानना और मुझमें प्रवेश पाना सम्भव है।'