कर्म, ज्ञान और योगके साधकोंको अपने बलका और साधनका अभिमान हो सकता है। भगवान्का तो नाम ही दर्पहारी है। यद्यपि वस्तुतः भगवान्का न किसीमें द्वेष है, न राग है। उनके लिये सभी समान हैं।
वे सभीका उद्धार करते हैं। हाँ, उद्धारके साधन भिन्न-भिन्न हैं। अभिमानीका उद्धार उसे दण्ड देकर करते हैं और दीन सेवकका उसे प्रेमसे गले लगाकर।
इसीसे भगवान्के क्रोधको भी वरके तुल्य बतलाया गया है। अभिमानीके प्रति भगवान् द्वेषीकी-सी लीला करते हैं और दीनके साथ प्रेमीकी सी । इसीसे दीनबन्धु, अशरण-शरण और 'कंगालके धन' आदि उनके नाम हैं। यथार्थमें तो अभिमानीके प्रति भी उनके हृदयमें प्रेम ही होता है, इसीलिये तो वे उसका अभिमान नष्ट करते हैं।
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ।
जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना ॥
ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी ॥
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥
इतना होनेपर भी दण्डमें द्वेष दीखता ही है, परन्तु दीन अमानी गरीबको तो आप हृदयसे लगा लेते हैं। उसका छोटे से-छोटा काम करनेमें भी नहीं सकुचाते।
भक्तजन तो स्वाभाविक ही अपनेको किंकर समझते हैं, वे कहते हैं...
सर्वसाधनहीनस्य पराधीनस्य सर्वथा ।
पापपीनस्य दीनस्य कृष्ण एवं गतिर्मम ॥
'हे प्रभो ! मुझ समस्त साधनोंसे हीन, मायाके सर्वथा पराधीन हुए, पापोंसे लदे हुए दीनकी तो केवल तुम ही गति हो।'
जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतितपावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥
यह दीनता उस अभावकी स्थितिका नाम नहीं है, जिसमें मनुष्य धन, मान, वैभव आदिके अभावसे ग्रस्त होकर उनकी प्राप्तिके लिये व्याकुल रहा करता है। यह दीनता तो उस निरभिमानता और अहंकारशून्यताका नाम है, जो बड़े-से-बड़े वैभवशाली सम्राट्को भी भगवत्कृपासे प्राप्त हो सकती है।
इस दीनताका अर्थ है अभिमान और कर्तृत्व-अहंकारका नाश हो जाना। यह समझना कि मैं और मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ है सो सब भगवान् है और सब भगवान्का है, सब कुछ उन्हींकी शक्ति और प्रेरणासे होता है, करने करानेवाले वे ही हैं। परन्तु भगवान्को प्यारी यह सच्ची दीनता सहज ही नहीं प्राप्त होती। अभिमानका सारा भूत उतरे बिना दीनता नहीं आती। वर्ण, जाति, धन, मान, विद्या, साधन, स्वास्थ्य आदिका अभिमान और कर्तापनका अहंकार मनुष्यमें ऐसी दीनता उत्पन्न नहीं होने देता; ऊपरसे मनुष्य दम्भपूर्वक दीन बनता है, भगवान्के सामने अपनेको दीन कहता है, रोनेका स्वाँग भरता है; परन्तु उसकी दीनताकी परीक्षा तो तभी होती है, जब बड़े-से-बड़े सांसारिक पदार्थों और साधनोंकी प्राप्तिमें भी स्वाभाविक दीनता ज्यों-की-त्यों बनी रहे।
जो सब लोगोंके सामने अपनेसे हीन स्थितिके दूसरे मनुष्योंद्वारा दीन और पापी कहा जाना केवल सह ही नहीं लेता, वरं उसे सत्य समझकर प्रसन्न होता है और प्रभु-प्राप्तिके लिये सदैव जिसका चित्त खिन्न रहा करता है, ऐसे ही खिन्न - दीन भगवान्को प्यारे होते हैं। सच्ची भक्तिमें अपने पुरुषार्थ या साधनका अभिमान आ ही नहीं सकता, इसीलिये भक्ति श्रेष्ठ है।