अतएव यह भक्ति ही साधन है और भक्ति ही साध्य है। मूल भी वही और फल भी वही। भक्तगण भक्तिके लिये ही भक्ति करते हैं। क्योंकि भक्ति स्वयं फलरूपा है।
भक्ति न किसी साधनसे मिलती है और न कोई उससे श्रेष्ठ वस्तु है जिसकी प्राप्तिका वह साधन हो।
सो सुतंत्र अवलंब न आना।
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥