केवल राजमहलका वर्णन सुनने और जान लेनेसे काम नहीं चलता। राजा धर्मात्मा है, शक्तिशाली है, प्रजाहितैषी है, रूपगुणसम्पन्न है, यह बात भी जान ली; परन्तु इससे क्या हुआ, इस जाननेमात्रसे राजा प्रसन्न थोड़े ही हो गया। इसी प्रकार जान लिया कि हलवा मीठा होता है, घी और शक्करसे बनता है, बड़ा स्वादिष्ट है; परन्तु इससे भूख तो नहीं मिटती। इसी तरह केवल शब्दज्ञानसे न तो भगवान्की प्रसन्नता होती है और न हमें शान्ति ही मिलती है। यद्यपि भगवान्के लिये सभी समान हैं तथापि उनकी प्रसन्नता तो भक्तिसे ही मिलती है।
भगवान स्वयं कहते हैं...
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
'मैं सब भूतोंमें सम हूँ, न कोई मेरा द्वेष्य है और न प्रिय है; परन्तु जो मुझको भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।'