भक्तिसे भवबन्धन तो अनायास कट ही जाता है, साक्षात् भगवान् उसके प्रेमास्पद बनकर उसके साथ दिव्य लीला करते हैं।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद ।
संत पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं ।
अनइच्छित आवइ बरिआईं ॥
अन्यान्य बड़े-बड़े साधनोंसे भी सहजमें न मिलनेवाली अति दुर्लभ मुक्ति बिना ही माँगे बलात् आती है, परन्तु वह भक्त तो "मुक्ति निरादर भगति लुभाने"
मुक्तिकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। ऐसी सुलभ और सर्वोपरि स्थितिरूप भक्तिको छोड़कर दूसरे साधनको कोई क्यों करे? श्रद्धालु और बुद्धिमान् पुरुषोंको केवल भक्ति ही करनी चाहिये।