जीवके मनमें स्वाभाविक ही प्रेमका स्रोत है, क्योंकि जीव परमानन्दस्वरूप परमप्रेमरूप भगवान्का ही सनातन चिदंश है। परन्तु विषयोंके प्रति प्रवाहित होनेसे उसके प्रेमकी धारा दूषित हो गयी है और इसीसे वह प्रेम दुःख उत्पन्न करनेवाले कामके रूपमें परिणत हो रहा है और इसी कारण उसके परमात्ममुखी दिव्य स्वरूपका प्रकाश नहीं होता।
प्रेमके दिव्य स्वरूपके प्रकाशके लिये उसकी विषयाभिमुखी गतिको पलटकर ईश्वराभिमुखी करनेकी आवश्यकता है। इसके लिये दो उपाय हैं-
1-विषयोंका स्वरूपसे त्याग और
2-विषयोंकी आसक्तिका त्याग।
जो लोग यह मानते हैं कि विषयोंमें आसक्त रहते और यथेच्छ अमर्यादित विषयोंका संग्रह एवं उपभोग करते हुए ही भगवान्की भक्ति प्राप्त हो जायगी अथवा भगवद्भक्तिके मार्गमें विषय और विषयासक्तिके त्यागकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, वे बहुत बड़ी भूलमें हैं। भक्तिमें तो अपने भोग के लिये कोई वस्तु रह ही नहीं जाती; जब भोक्ता ही कोई नहीं रहता, तब भोग्य वस्तु कहाँसे रहे? वहाँ तो एकमात्र प्राणाधार भगवान् ही सर्वभोक्ता हैं और हम अपने समस्त अंगों एवं समस्त सामग्रियोंसहित भगवान्के भोग्य हैं। एकमात्र वे ही पुरुष हैं और सब उनकी भोग्या प्रकृति हैं। ऐसी अवस्थामें भक्तका अपना कोई भोग्य विषय रह ही नहीं जाता। इसको यदि ऊँची स्थिति कहकर कोई इससे बचना चाहे तो उसे भी साधनकालमें विषयोंका और विषयासक्तिका यथासाध्य उत्तरोत्तर त्याग करना ही पड़ता है। शरीर विषयभोगमें लगा होगा और मन विषयोंमें आसक्त रहेगा, तो फिर प्रियतम भगवान्की सेवा किस तन-मनसे होगी ? अतएव विषय-त्यागकी बड़ी भारी आवश्यकता है। बाह्य भोग तो क्या, मनसे भी विषयोंका चिन्तन छोड़ना पड़ेगा; क्योंकि यह नियम है कि मन जिस वस्तुका चिन्तन करेगा, उसीमें उसकी आसक्ति होगी।
भगवान्ने श्रीमद्भागवतमें कहा है...
'विषयोंका चिन्तन करनेसे मन विषयोंमें आसक्त होता है और मेरा बार-बार स्मरण करनेसे वह मुझमें लीन हो जाता है।'
मनको जहाँ लगाओ वहीं लग जाता है और वह लगाना होता है इन्द्रियोंके द्वारा ही; हम बार-बार जिस प्रकारके दृश्योंको देखेंगे, जैसी बात सुनेंगे, जैसी चीज खायँगे, जो कुछ सूँघेंगे, जैसी वस्तुका स्पर्श करेंगे, उन्हींका मनमें बार-बार चिन्तन होगा और जिस वस्तुका अधिक चिन्तन होगा, उसीमें आसक्ति होगी। नाटक देखेंगे, वेश्याका गाना सुनेंगे, उनमें आसक्ति होगी; भक्त लीला देखेंगे, कीर्तन सुनेंगे तो उनमें आसक्ति होगी। अतएव भक्तिकी अभिलाषा रखनेवालोंको भगवान्के प्रतिकूल तमाम विषयोंका त्याग करना चाहिये।
वास्तवमें इस सूत्रमें विषयत्यागमें उन्हीं विषयोंका त्याग समझना चाहिये जो हमारे मनको भगवान्से हटाकर भोगों में, जगत्-प्रपंचमें लगा देते हैं।
ध्यान चिन्तन, कीर्तन, भगवत्सेवा, साधुसत्कार, सत्संग आदि जो भगवदनुकूल विषय हैं, उनमें तो तन मनको चाह करके लगाना चाहिये और जिन विषयोंके संग्रह और सेवनकी शरीरयात्रा या कुटुम्बपोषणके लिये नितान्त आवश्यकता हो, उनका भी यथासम्भव बहुत ही थोड़े परिमाणमें संग्रह और सेवन करना चाहिये और वह भी शास्त्रानुकूल तथा ईश्वरकी आज्ञा समझकर अन्य किसी भी फल-कामनाको मनमें स्थान न देते हुए केवल ईश्वर-प्रीत्यर्थ ही। इस प्रकारसे किया हुआ विषय सेवन भी विषयत्यागके ही तुल्य समझा जाता है। केवल बाहरसे किसी विषयका त्याग कर दिया जाय और मनमें उसका स्मरण बना रहे, तो वह यथार्थ त्याग नहीं है; इसीलिये सूत्रमें विषयत्यागके साथ-ही-साथ आसक्तित्यागकी भी आवश्यकता बतलायी गयी है।
महाभारतमें कहा है...
'विषयासक्ति और विषय दोनोंके त्यागका नाम ही त्याग है।' इसीसे विषयानुरागका त्याग होगा और विषयानुरागसे रहित हृदय ही भगवत्प्रेमका दिव्य धाम बन सकता है। भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होनेपर तो विषयका त्याग स्वाभाविक ही रहता है।
श्रीरामचरितमानस में कहा है...
रमा बिलासु राम अनुरागी ।
तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥
अमृतके स्वादको चख लेने और उसके गुणसे लाभ उठा लेनेपर फिर विषकी ओर किसीकी नजर ही क्यों जाने लगी!
परन्तु उस अमृतकी प्राप्तिके लिये भी उसकी ओर गति होनेके लिये भी विषयविषके त्यागकी आवश्यकता है। विषयासक्तिका त्याग करके भगवान्में आसक्त होनेमें ही परम सुख है।
भगवान् कहते हैं...
(श्रीमद्भा0 11 । 14 । 12) 'मुझमें चित्त लगानेवाले और समस्त विषयोंकी अपेक्षा छोड़नेवाले भक्तको आत्मस्वरूप मुझसे जो परम सुख मिलता है, वह सुख विषयासक्तचित्त लोगोंको कहाँसे मिल सकता है ?'