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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 35 - Sutra 35

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तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥

35 - वह (भक्ति-साधन) विषयत्याग और संगत्यागसे सम्पन्न होता है।

जीवके मनमें स्वाभाविक ही प्रेमका स्रोत है, क्योंकि जीव परमानन्दस्वरूप परमप्रेमरूप भगवान्‌का ही सनातन चिदंश है। परन्तु विषयोंके प्रति प्रवाहित होनेसे उसके प्रेमकी धारा दूषित हो गयी है और इसीसे वह प्रेम दुःख उत्पन्न करनेवाले कामके रूपमें परिणत हो रहा है और इसी कारण उसके परमात्ममुखी दिव्य स्वरूपका प्रकाश नहीं होता।

प्रेमके दिव्य स्वरूपके प्रकाशके लिये उसकी विषयाभिमुखी गतिको पलटकर ईश्वराभिमुखी करनेकी आवश्यकता है। इसके लिये दो उपाय हैं-
1-विषयोंका स्वरूपसे त्याग और
2-विषयोंकी आसक्तिका त्याग।

जो लोग यह मानते हैं कि विषयोंमें आसक्त रहते और यथेच्छ अमर्यादित विषयोंका संग्रह एवं उपभोग करते हुए ही भगवान्‌की भक्ति प्राप्त हो जायगी अथवा भगवद्भक्तिके मार्गमें विषय और विषयासक्तिके त्यागकी कोई आवश्यकता ही नहीं है, वे बहुत बड़ी भूलमें हैं। भक्तिमें तो अपने भोग के लिये कोई वस्तु रह ही नहीं जाती; जब भोक्ता ही कोई नहीं रहता, तब भोग्य वस्तु कहाँसे रहे? वहाँ तो एकमात्र प्राणाधार भगवान् ही सर्वभोक्ता हैं और हम अपने समस्त अंगों एवं समस्त सामग्रियोंसहित भगवान्‌के भोग्य हैं। एकमात्र वे ही पुरुष हैं और सब उनकी भोग्या प्रकृति हैं। ऐसी अवस्थामें भक्तका अपना कोई भोग्य विषय रह ही नहीं जाता। इसको यदि ऊँची स्थिति कहकर कोई इससे बचना चाहे तो उसे भी साधनकालमें विषयोंका और विषयासक्तिका यथासाध्य उत्तरोत्तर त्याग करना ही पड़ता है। शरीर विषयभोगमें लगा होगा और मन विषयोंमें आसक्त रहेगा, तो फिर प्रियतम भगवान्की सेवा किस तन-मनसे होगी ? अतएव विषय-त्यागकी बड़ी भारी आवश्यकता है। बाह्य भोग तो क्या, मनसे भी विषयोंका चिन्तन छोड़ना पड़ेगा; क्योंकि यह नियम है कि मन जिस वस्तुका चिन्तन करेगा, उसीमें उसकी आसक्ति होगी।

भगवान्ने श्रीमद्भागवतमें कहा है...

'विषयोंका चिन्तन करनेसे मन विषयोंमें आसक्त होता है और मेरा बार-बार स्मरण करनेसे वह मुझमें लीन हो जाता है।'

मनको जहाँ लगाओ वहीं लग जाता है और वह लगाना होता है इन्द्रियोंके द्वारा ही; हम बार-बार जिस प्रकारके दृश्योंको देखेंगे, जैसी बात सुनेंगे, जैसी चीज खायँगे, जो कुछ सूँघेंगे, जैसी वस्तुका स्पर्श करेंगे, उन्हींका मनमें बार-बार चिन्तन होगा और जिस वस्तुका अधिक चिन्तन होगा, उसीमें आसक्ति होगी। नाटक देखेंगे, वेश्याका गाना सुनेंगे, उनमें आसक्ति होगी; भक्त लीला देखेंगे, कीर्तन सुनेंगे तो उनमें आसक्ति होगी। अतएव भक्तिकी अभिलाषा रखनेवालोंको भगवान्‌के प्रतिकूल तमाम विषयोंका त्याग करना चाहिये।

वास्तवमें इस सूत्रमें विषयत्यागमें उन्हीं विषयोंका त्याग समझना चाहिये जो हमारे मनको भगवान्से हटाकर भोगों में, जगत्-प्रपंचमें लगा देते हैं।


ध्यान चिन्तन, कीर्तन, भगवत्सेवा, साधुसत्कार, सत्संग आदि जो भगवदनुकूल विषय हैं, उनमें तो तन मनको चाह करके लगाना चाहिये और जिन विषयोंके संग्रह और सेवनकी शरीरयात्रा या कुटुम्बपोषणके लिये नितान्त आवश्यकता हो, उनका भी यथासम्भव बहुत ही थोड़े परिमाणमें संग्रह और सेवन करना चाहिये और वह भी शास्त्रानुकूल तथा ईश्वरकी आज्ञा समझकर अन्य किसी भी फल-कामनाको मनमें स्थान न देते हुए केवल ईश्वर-प्रीत्यर्थ ही। इस प्रकारसे किया हुआ विषय सेवन भी विषयत्यागके ही तुल्य समझा जाता है। केवल बाहरसे किसी विषयका त्याग कर दिया जाय और मनमें उसका स्मरण बना रहे, तो वह यथार्थ त्याग नहीं है; इसीलिये सूत्रमें विषयत्यागके साथ-ही-साथ आसक्तित्यागकी भी आवश्यकता बतलायी गयी है।

महाभारतमें कहा है...

'विषयासक्ति और विषय दोनोंके त्यागका नाम ही त्याग है।' इसीसे विषयानुरागका त्याग होगा और विषयानुरागसे रहित हृदय ही भगवत्प्रेमका दिव्य धाम बन सकता है। भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होनेपर तो विषयका त्याग स्वाभाविक ही रहता है।

श्रीरामचरितमानस में कहा है...

रमा बिलासु राम अनुरागी ।
तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥

अमृतके स्वादको चख लेने और उसके गुणसे लाभ उठा लेनेपर फिर विषकी ओर किसीकी नजर ही क्यों जाने लगी!

परन्तु उस अमृतकी प्राप्तिके लिये भी उसकी ओर गति होनेके लिये भी विषयविषके त्यागकी आवश्यकता है। विषयासक्तिका त्याग करके भगवान्‌में आसक्त होनेमें ही परम सुख है।

भगवान् कहते हैं...

(श्रीमद्भा0 11 । 14 । 12) 'मुझमें चित्त लगानेवाले और समस्त विषयोंकी अपेक्षा छोड़नेवाले भक्तको आत्मस्वरूप मुझसे जो परम सुख मिलता है, वह सुख विषयासक्तचित्त लोगोंको कहाँसे मिल सकता है ?'

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नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥