भजन भक्तिका प्रधान अंग हैं, यह साध्य और साधन दोनों है। जो भगवत्प्रेमको प्राप्त कर चुके हैं, उनके लिये अखण्ड भजन स्वाभाविक हो जाता है और जिनको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति करनी है उनको अखण्ड भजनका अभ्यास करना चाहिये। जो मनुष्य भजन बिना मुक्ति और भगवत्प्रेमकी प्राप्ति चाहता है वह भूलता है।
गोसाईं श्रीतुलसीदासजी महाराज कहते हैं...
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥
'जलके मन्थनसे चाहे घी निकल आवे, बालूसे चाहे तेल निकले; परन्तु भगवान् के भजन बिना भवसागरसे मनुष्य नहीं तर सकता, यह सिद्धान्त अकाट्य है।' अतएव भजन तो अनिवार्य साधन है। फिर भक्ति साधकके लिये तो यही एक खास वस्तु है। विषयसे मन हटाकर यदि भगवान्में न लगाया जाय तो वह वापस दौड़कर वहीं चला जायगा । विषयत्याग वैराग्य है और भगवत्-भजन अभ्यास । इन्हीं अभ्यास-वैराग्यसे विशुद्ध भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है। परन्तु जो भजन अभी होता है, घड़ीभर बाद नहीं होता; आज किया, कल नहीं - वह प्रेम और आदरयुक्त अखण्ड भजन नहीं है। भजनरूपी अभ्यास तो वही सिद्ध होता है जो सदा होता रहे। सतत होता रहे और सत्कारपूर्वक हो।
योगदर्शनमें महर्षि पतंजलि कहते हैं...
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ।
'दीर्घकालपर्यन्त निरन्तर सत्कारके साथ करनेपर ही अभ्यास दृढ़ होता है।'
इस नित्य निरन्तरके अखण्ड स्मरणसे भगवान्की प्राप्ति सहज ही हो जाती है। स्वयं भगवान्ने भी गीतामें कहा है...
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (8.14)
'हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर नित्य-निरन्तर मुझको स्मरण करता है, उस निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी केलिये मैं सुलभ हूँ।'
अतएव अखण्डरूपसे भगवान्का प्रेमपूर्वक चिन्तन करते हुए ही स्नान, भोजन, व्यापार आदि सब काम करने चाहिये। भगवत्-स्मरणयुक्त होनेसे प्रत्येक कार्य ही भजन हो जायगा। इस प्रकार भजनका ताँता क्षणभर भी नहीं टूटना चाहिये। स्वरूपका चिन्तन न हो सके तो निरन्तर भगवान्का नामस्मरण ही करना चाहिये। भगवान्के नामस्मरणसे मन और प्राण पवित्र हो जायेंगे और भगवान्के पावन पदकमलोंमें अनन्य प्रेम उत्पन्न हो जायगा। नाम-जपकी सहज विधि यह है कि अपने श्वास प्रश्वासके आने-जानेकी ओर ध्यान रखकर श्वास-प्रश्वासके साथ-ही-साथ मनसे और साथ ही धीमे स्वरसे वाणीसे भी भगवान्का नाम-जप करता रहे। यह साधन उठते-बैठते, चलते फिरते, सोते, खड़े रहते, सब समय किया जा सकता है। अभ्यास दृढ़ हो जानेपर चित्त विक्षेपशून्य होकर निरन्तर भगवान्के चिन्तनमें अपने-आप ही लग जायगा। प्रायः सभी प्रसिद्ध भक्तों और सन्तोंने इस साधनका प्रयोग किया था।
भगवान् के स्वरूप, प्रभाव, रहस्य, गुण, लीला अथवा नामका चिन्तन निरन्तर तैलधाराकी भाँति होते रहना चाहिये। यही अखण्ड भजन है।