विषय और विषयासक्तिका त्याग करके अखण्ड भजन और श्रवण-कीर्तनका साधन बतलाया जानेके बाद अब एक ऐसा साधन बतलाया जाता है, जिस एकके प्रतापसे ही पहले तीनों अपने-आप हो जाते हैं-वह साधन है 'महापुरुषोंकी कृपा' । तो कृपालु ही होते हैं, परन्तु श्रद्धा-विश्वासपूर्वक उनका संग करना बड़ा कठिन है। महापुरुषोंका संग प्राप्त होनेपर विषय तो आप ही छूट जाते हैं। उनके संगसे श्रवण-कीर्तन भी करना ही पड़ता है और रात-दिन जो कुछ सुनने, कहने और देखने में आता है, उसका स्मरण अनिवार्य है ही। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिये कि यहाँ जिन महापुरुषोंकी कृपामात्रसे ही फलरूपा प्रेमभक्तिकी प्राप्ति बतलायी है, वे महापुरुष केवल शास्त्रज्ञानी और सदाचारी ही नहीं होते, भगवान्के स्वरूप-तत्त्वको यथार्थरूपसे जानकर उनमें अनन्य प्रेम करनेवाले भक्त होते हैं। ऐसे प्रेमी भक्तोंके संगकी बड़ी महिमा है। इसीसे यज्ञ धूमसे जिनके शरीर धुमैले हो गये हैं, ऐसे कर्मकाण्डी विज्ञानविद् ऋषि भगवच्चरणकमल रसामृतका पान करानेवाले प्रेममूर्ति सूतजीसे कहते हैं...
श्रीमद्भा0 1।18। 13)
'हे सौम्य ! भगवत्संगी प्रेमियोंके निमेषमात्रके संगकी तुलना, स्वर्गादिकी तो बात ही क्या, पुनर्जन्मका नाश करनेवाली मुक्तिके साथ भी नहीं की जा सकती; फिर मर्त्यलोकके राज्यादि सम्पत्तिकी तो बात ही क्या है?
इसीके आधारपर रामचरितमानसमें कहा गया है...
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
यह उस सत्संगकी महिमा नहीं है जो अन्तःकरणकी शुद्धि करके मोक्षप्राप्ति करवाता है। क्योंकि यहाँ तो मोक्षके साथ लवमात्रके ऐसे सत्संगकी तुलना करना भी असंगत बतलाया गया है। अतएव यहाँ उन भगवत्तत्त्वके ज्ञाता होकर भगवत्-प्रेमके रंगमें रँगे हुए मोक्षसंन्यासी भगवत्संगी (सर्वैश्वर्यपूर्ण मधुरतम लीलाविहारी भगवान्के नित्य लीलासंगी) प्रेमी सन्तोंकी उस कृपाका उल्लेख है, जो केवल मुक्ति ही नहीं, भगवान्के प्रेमरूपी भक्तिकी प्राप्ति भी सहज ही करवा देती है। क्योंकि मुक्तिको तो ऐसे प्रेमी चाहते ही नहीं। वरं मुक्तिकी चाहको ही वे प्रेमरूपा भगवद्भक्तिकी उत्पत्तिमें बाधा देनेवाली पिशाचिनी समझकर उसका तिरस्कार किया करते हैं। ऐसे प्रेमी भक्तोंकी कृपा जिनपर होती है, जो पुरुष ऐसे भक्तोंका संग प्राप्त कर लेता है, योग और ज्ञान आदिसे भी वशमें न होनेवाले भगवान् (सहज ही) उसके वशमें हो जाते हैं।
इसीलिये स्वयं भगवान् अपने प्रेमी भक्त उद्धवसे कहते हैं...
(श्रीमद्भा0 11 12।1-2)
'दूसरे समस्त संगोंका निवारण करनेवाले 'सत्संगसे' मैं जैसा वशीभूत होता हूँ वैसा योग, ज्ञान, धर्म, वेदाध्ययन, तप, त्याग, इष्टापूर्त, दक्षिणा, व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ, यम और नियम किसीसे नहीं होता।'
इसका कारण यह है कि अन्यान्य सब साधन, सकामभावसे होनेपर भोग और स्वर्गादिकी और निष्कामभावसे होनेपर अन्तःकरणकी शुद्धि और मुक्तिकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं। लीलाविहारी भगवान्को सीधा वशमें करनेवाला तो केवल एक सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, अनन्य और विशुद्ध प्रेम ही है, जो इन साधनोंमेंसे किसीसे नहीं मिलता; वह तो केवल भगवत्संगी प्रेमी महापुरुषोंकी महती कृपासे ही मिलता है।
भगति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
हाँ, यदि श्रीभगवान् चाहें तो स्वयमेव अपना प्रेम दे सकते हैं; उनकी कृपाके लेशमात्रसे ही प्रेम मिल सकता है।
गोसाईंजीने कहा है...
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्राम राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥
परन्तु नित्य कृपावर्षा करनेवाले भगवान्का कृपाबिन्दु भी भगवदीय महात्माओंकी कृपासे ही जीवोंको मिल सकता है। अतएव ऐसे प्रेमी सन्तोंका संग ही प्रधान साधन है, परन्तु ऐसा संग प्राप्त होना अपने वशकी बात नहीं!
इसीसे देवर्षि नारदजी अगले सूत्रमें महत्संगको दुर्लभ बतलाते हैं...