संसारमें स्वधर्मपरायण, सदाचारी, साधुस्वभाव, दैवी सम्पत्तिवान् पुरुषोंकी प्राप्ति बहुत दुर्लभ है। सच्चे हीरोंकी भाँति जमातों और उपदेशकोंमें सच्चे साधु थोड़े ही होते हैं; पर खोज करनेपर संसारमें सदाचारी, कर्मकाण्डी और कुछ ज्ञानी पुरुष तो मिल भी सकते हैं। परन्तु ऐसे सच्चे प्रेमी महात्मा बहुत ही कम मिलते हैं, जिनकी कृपामात्रसे परमदुर्लभ योगि-ज्ञानि-जनवांछित भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती हो। इसीलिये ऐसे महात्माओंका मिलन बहुत दुर्लभ माना जाता है। यदि कहीं ऐसे महापुरुष मिल भी जाते हैं तो उनका पहचानना बहुत कठिन होता है। क्योंकि बाह्य आचार तो ढोंगी और नाटकके पात्र भी किसी अंशमें वैसा ही दिखला सकते हैं। आँखों से आँसुओंका बहना, रोना, हँसना और चिल्लाना ही प्रेमीके लक्षण नहीं हैं। अनेक बाह्य कारणोंसे भी ऐसा हो सकता है। फिर कोई
कोई सच्चे प्रेमी ऐसे भी हो सकते हैं, जो इन लक्षणोंवाली स्थितिसे भी आगे बढ़ चुके हों और जिनके बाह्य आचार साधारण समझसे बाहर हों। प्रेमीजन तो किसीको कहने जाते ही नहीं कि हमें प्रेमी मानो और कहनेसे मानता भी कौन है। अतएव ऐसे नि:स्पृही भगवज्जनोंकी पहचान बहुत ही कठिन है, इसीसे उनके संगको दुर्गम बतलाया गया है। परन्तु सौभाग्यसे यदि कहीं ऐसे महात्मा पुरुष मिल जाते हैं तो उनका बिना जाने मिल जाना भी कभी व्यर्थ नहीं हो सकता; क्योंकि वह अमोघ है। जब साधारण सदाचारी, विद्वान् साधुओंका समागम ही अन्तःकरणकी शुद्धिका कारण होकर पाप, ताप और दैन्यका निवारण करनेमें समर्थ होता है; तब जिनका हृदय भगवत्प्रेमसे छलकता है, जो प्रेम और आनन्दकी मूर्ति हैं, जिनके स्मरणमात्रसे ही पापोंका नाश होता है, उन भगवदीय प्रेमी महात्माओंके दर्शनका महान् फल अवश्य ही प्राप्त होता है।
जैसे अमावस्याकी अँधेरी रातमें सोया हुआ आदमी यदि सूर्योदय होनेपर भी सोता ही रहे तो उसको न जागनेतक प्रकाशका अनुभव नहीं होता, परन्तु प्रकाश तो सूर्योदयके साथ साथ हो ही जाता है। और जैसे कोई धनी पुरुष अपने किसी प्रेमी दरिद्र आदमीके नामपर अपनी करोड़ोंकी सम्पत्ति ट्रांसफर करवा देता है, तो वह दरिद्र उसी समयसे धनी तो हो जाता है; परन्तु जबतक उसको इस बातका पता नहीं लगता तबतक वह अपनेको दरिद्र ही समझता है। इसी प्रकार किन्हीं भगवत्प्रेमी महापुरुषके अज्ञात संगसे भी पाप और अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश होकर ज्ञानरूप सूर्यका प्रकाश और प्रेमरूप परमनिधि तो मिल जाती है, परन्तु जबतक इस बातका पता नहीं लगता तबतक इस लाभसे अपरिचित रहनेके कारण मनुष्य आनन्दको प्राप्त नहीं होता। अवश्य ही इस स्थितिका परिचय मिलनेमें अधिक विलम्ब नहीं होता। इसीसे महत्संगको अमोघ (अवश्य फलदायी) बतलाया गया है।