जिसने भगवत् - प्रेमामृतका पान कर लिया, वही सिद्ध है। 'सिद्ध' शब्दसे यहाँ अणिमादि सिद्धियोंसे अभिप्राय नहीं है। प्रेमी भक्त, इन सिद्धियोंकी तो बात ही क्या, मोक्षरूप सिद्धि भी नहीं चाहता। ये सिद्धियाँ तो ऐसे प्रेमी भक्तकी सेवाके लिये अवसर ढूँढ़ा करती हैं, परन्तु वह भगवत्प्रेमके सामने अत्यन्त तुच्छ समझकर इनको स्वीकार ही नहीं करता।
स्वयं भगवान् कहते हैं...
'मुझमें चित्त लगाये रखनेवाले मेरे प्रेमी भक्त मुझको छोड़कर ब्रह्माका पद, इन्द्रासन, चक्रवर्ती राज्य, लोकान्तरोंका आधिपत्य, योगकी सब सिद्धियाँ और सायुज्य मोक्ष आदि कुछ भी नहीं चाहते।'
एक भक्त कहते हैं...
'प्रियतम श्रीकृष्णकी पूजा करते समय शरीर पुलकित हो गया, भक्तिसे मन प्रफुल्लित हो गया। प्रेमके आँसुओंने मुखको और गद्गद वाणीने कण्ठको सुशोभित कर दिया। अब तो हमें एक क्षणके लिये भी फुरसत नहीं है कि हम किसी दूसरे विषयको स्वीकार करें। इतनेपर भी सायुज्य आदि चारों प्रकारकी मुक्तियाँ न जाने क्यों हमारे दरवाजेपर खड़ी हमारी दासी बननेके लिये आतुर हो रही हैं।'
भक्त यदि भुक्ति और मुक्तिको स्वीकार कर ले तो वे अपना परम सौभाग्य मानती हैं, परन्तु भक्त ऐसा नहीं करते।
'मुक्ति आदि सिद्धियाँ और अनेक प्रकारकी विलक्षण भुक्तियाँ (भोग) दासीकी भाँति हरिभक्ति महादेवीकी सेवामें लगी रहती हैं।'
इसलिये यहाँ सिद्धिका अर्थ 'कृतकृत्यता' लेना चाहिये। भक्तको किसी वस्तुके अभावका बोध नहीं रहता। वह प्रियतम भगवान्के प्रेमको पाकर सर्वथा पूर्णकाम हो जाता है। यह पूर्णकामता ही उसका अमर होना है। जबतक मनुष्य कृतकृत्य या पूर्णकाम नहीं होता, तबतक उसे बारम्बार कर्मवश आना-जाना पड़ता है। पूर्णकाम भक्त सृष्टि और संहार दोनोंमें भगवान्की लीलाका प्रत्यक्ष अनुभव कर मृत्युको खेल समझता है। वास्तवमें उसके लिये मृत्युकी ही मृत्यु हो। जाती है। प्रभु-लीलाके सिवा मृत्युसंज्ञक कोई भयावनी वस्तु उसके ज्ञानमें रह ही नहीं जाती और इसलिये वह तृप्त हो जाता है। जबतक जगत्के पदार्थोंकी ईश्वर-लीलासे अलग कोई सत्ता रहती है तभीतक उनको सुखद या दुःखप्रद समझकर मनुष्य निरन्तर नये-नये सुखप्रद पदार्थोंकी इच्छा करता हुआ अतृप्त रहता है। जब सबका मूल स्रोत, सबका यथार्थ पूर्ण स्वरूप उसे मिल जाता है तब उन खण्ड और अपूर्ण पदार्थोंकी ओर उसका मन ही नहीं जाता। वह पूर्णको पाकर तृप्त हो जाता है।