भगवान्के भक्त भगवत्स्वरूप ही हैं (ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति) जो भक्तोंका सेवन करते हैं वे भगवान्का ही सेवन करते हैं। भक्त भगवान्के हृदयमें बसते हैं और भगवान् भक्तके हृदयमें ।
भगवान्ने कहा है ...
(श्रीमद्भा0 9।4।68)
'साधु मेरे हृदय हैं और मैं उनका हृदय हूँ। वे मेरे सिवा और किसीको नहीं जानते तथा मैं उन्हें छोड़कर और किसीको नहीं जानता।'
भरत रामको भजते हैं और राम भरतको...
भरत सरिस को राम सनेही
जगु जप राम राम जप जेही ॥
श्रीभगवान्ने प्रेमस्वरूपा गोपियोंके सम्बन्धमें कहा है...
'हे अर्जुन! मेरा माहात्म्य, मेरी पूजा, मेरी श्रद्धा और मेरे मनकी बात तत्त्वसे केवल गोपियाँ ही जानती हैं और कोई नहीं जानता।' ऐसे प्रेमी भक्तोंमें और भगवान्में क्या अन्तर है ?
भगवान्ने कहा ही है...
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
(गीता 9।29)
'जो प्रेमसे मुझको भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ।'
ऐसे भक्त भगवत्प्रेममें इस प्रकार तल्लीन रहते हैं कि वे अपने बाह्य रूपको भूलकर साक्षात् भगवत्-स्वरूपका अनुभव करने लगते हैं। गोपियाँ भगवान्को ढूँढ़ती हुई ऐसी तन्मय हो गयीं कि वे उन्हींकी लीला करने लगीं
मोहन लाल रसालकी लीला इनहीं सोहैं।
केवल तन्मय भई कछु न जानैं हम को हैं ।