सत्संगका महत्त्व बतलाकर अब देवर्षि दुःसंगका निषेध करते हैं। जिस प्रकार सत्संगसे भगवत्कथा, भगवच्चर्चा, भगवन्नाम, भगवत्प्रीति, सदाचार, शास्त्र, विवेक, वैराग्य, सत्-अभ्यास, सेवा, सरलता, नम्रता, क्षमा, तितिक्षा, शौच, दया, अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, निरभिमानता और शान्ति आदिके प्रति प्रवृत्ति होती है और मनुष्य सदाचारपरायण परमभक्त बन सकता है; इसी प्रकार इसके विपरीत दुःसंगसे विषयवार्ता, जगच्चर्चा, लोकनिन्दा, भोगप्रीति, दुराचार, उच्छृंखलता, अविवेक, विषयलोलुपता, दुष्ट अभ्यास, मान, दम्भ, घमंड, क्रोध, असहिष्णुता, अपवित्रता, निर्दयता, हिंसा, असत्य, इन्द्रियलम्पटता, अभिमान और अशान्ति आदिके प्रति प्रवृत्त होकर मनुष्य पापपरायण और अत्यन्त विषयासक्त हो जाता है।
दुःसंगसे आसुरी सम्पत्तिके सभी दुर्गुण और दुराचारोंका विकास और विस्तार होता है। दुःसंगसे मनुष्यके समस्त सद्गुणोंका विनाश होकर उसका सर्वनाश हो जाता है। परम सुशीला, स्नेहमयी, प्रेमप्रतिमा देवी कैकेयी मन्थराकी कुसंगतिके कारण ही महाराज दशरथके, भरतके, अपने और तमाम अयोध्यावासियोंके परम शोकका कारण बनी थीं और इसीसे उन्हें अन्तमें दुःखप्रद वैधव्यका सहन करना और प्राणप्रिय भरतका अप्रीतिभाजन होकर रहना पड़ा था। शकुनिकी कुसंगति ही महाभारतके भयानक संहारमें एक प्रधान कारण हुई।
श्रीमद्भागवतमें भगवान् कपिलदेव माता देवहूतिजीसे कहते हैं ...
(3।31 । 32-34) 'जो मनुष्य शिश्नोदरपरायण (स्त्री और धनमें ही आसक्त) नीच पुरुषोंका संग करके उनके अनुसार बर्ताव करने लगता है। वह उन्हींकी भाँति अन्धकारमय नरकोंमें जाता है। क्योंकि दुष्टसंगसे सत्य, पवित्रता, दया, मननशीलता, बुद्धि, लज्जा, श्री, कीर्ति, क्षमा, मनका वशमें रहना, इन्द्रियोंका वशमें रहना और ऐश्वर्य आदि सब गुण नष्ट हो जाते हैं। अतएव उन अशान्तचित्त, मूर्ख, नष्टबुद्धि, स्त्रियोंके हाथके खिलौने बने हुए, शोचनीय, असाधु दुष्ट मनुष्योंका संग कभी नहीं करना चाहिये।'
अतएव दुःसंगका त्याग तो सभीके लिये आवश्यक है, पर भगवत्प्रेमकी इच्छा करनेवालोंको तो दुःसंगका त्याग बड़ी ही सावधानीसे करना चाहिये।
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणसे कहा है...
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
'हे विभीषण! नरकमें रहना अच्छा है, परन्तु विधाता कभी दुष्टका संग न दे।' दुष्ट-संगसे केवल दुराचारी मनुष्योंका ही संग नहीं समझना चाहिये । इन्द्रियोंका कोई भी विषय, जो हमारे मनमें असत् विचार तथा विषयोंकी लालसा उत्पन्न करे और भगवत्प्राप्तिके मार्गसे हमारे चित्तको चलायमान कर दे, दुःसंग हो सकता है। हमें न कोई ऐसी चेतन वस्तु या जड दृश्य देखना चाहिये, न ऐसी बात सुननी चाहिये, न ऐसी चर्चा करनी चाहिये, न वैसे स्थानमें जाना चाहिये, न वैसी पुस्तक या पत्रिका पढ़नी चाहिये, न वैसा चित्र देखना चाहिये, न वैसी वस्तु खानी, सूँघनी या स्पर्श करनी चाहिये और न वैसा विचार ही करना चाहिये, जिससे हमारे चित्तमें विषयचिन्तनकी प्रबलता हो जाय। याद रखना चाहिये कि मनुष्यमें अच्छे और बुरे भावोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें कम-से-कम ये दस बातें प्रधान कारण होती हैं- स्थान, अन्न, जल, परिवार, अड़ोस-पड़ोस, दृश्य, साहित्य, आलोचना, आजीविकाका कार्य और उपासना । यदि ये सब सात्त्विक होते हैं तो इनके सेवन से सात्त्विकता बढ़ती है। इन्हींका सेवन सत्संग है और यदि ये राजस या तामस हैं तो इनका सेवन दुःसंग है और उससे अज्ञानकी वृद्धि होकर तमाम दोषोंका विकास हो जाता है।
अतएव दुःसंगका सब प्रकारसे सर्वथा त्याग करना चाहिये।