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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 43 - Sutra 43

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दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥

43 - दुःसंगका सर्वथा ही त्याग करना चाहिये।

सत्संगका महत्त्व बतलाकर अब देवर्षि दुःसंगका निषेध करते हैं। जिस प्रकार सत्संगसे भगवत्कथा, भगवच्चर्चा, भगवन्नाम, भगवत्प्रीति, सदाचार, शास्त्र, विवेक, वैराग्य, सत्-अभ्यास, सेवा, सरलता, नम्रता, क्षमा, तितिक्षा, शौच, दया, अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, निरभिमानता और शान्ति आदिके प्रति प्रवृत्ति होती है और मनुष्य सदाचारपरायण परमभक्त बन सकता है; इसी प्रकार इसके विपरीत दुःसंगसे विषयवार्ता, जगच्चर्चा, लोकनिन्दा, भोगप्रीति, दुराचार, उच्छृंखलता, अविवेक, विषयलोलुपता, दुष्ट अभ्यास, मान, दम्भ, घमंड, क्रोध, असहिष्णुता, अपवित्रता, निर्दयता, हिंसा, असत्य, इन्द्रियलम्पटता, अभिमान और अशान्ति आदिके प्रति प्रवृत्त होकर मनुष्य पापपरायण और अत्यन्त विषयासक्त हो जाता है।

दुःसंगसे आसुरी सम्पत्तिके सभी दुर्गुण और दुराचारोंका विकास और विस्तार होता है। दुःसंगसे मनुष्यके समस्त सद्गुणोंका विनाश होकर उसका सर्वनाश हो जाता है। परम सुशीला, स्नेहमयी, प्रेमप्रतिमा देवी कैकेयी मन्थराकी कुसंगतिके कारण ही महाराज दशरथके, भरतके, अपने और तमाम अयोध्यावासियोंके परम शोकका कारण बनी थीं और इसीसे उन्हें अन्तमें दुःखप्रद वैधव्यका सहन करना और प्राणप्रिय भरतका अप्रीतिभाजन होकर रहना पड़ा था। शकुनिकी कुसंगति ही महाभारतके भयानक संहारमें एक प्रधान कारण हुई।


श्रीमद्भागवतमें भगवान् कपिलदेव माता देवहूतिजीसे कहते हैं ...

(3।31 । 32-34) 'जो मनुष्य शिश्नोदरपरायण (स्त्री और धनमें ही आसक्त) नीच पुरुषोंका संग करके उनके अनुसार बर्ताव करने लगता है। वह उन्हींकी भाँति अन्धकारमय नरकोंमें जाता है। क्योंकि दुष्टसंगसे सत्य, पवित्रता, दया, मननशीलता, बुद्धि, लज्जा, श्री, कीर्ति, क्षमा, मनका वशमें रहना, इन्द्रियोंका वशमें रहना और ऐश्वर्य आदि सब गुण नष्ट हो जाते हैं। अतएव उन अशान्तचित्त, मूर्ख, नष्टबुद्धि, स्त्रियोंके हाथके खिलौने बने हुए, शोचनीय, असाधु दुष्ट मनुष्योंका संग कभी नहीं करना चाहिये।'

अतएव दुःसंगका त्याग तो सभीके लिये आवश्यक है, पर भगवत्प्रेमकी इच्छा करनेवालोंको तो दुःसंगका त्याग बड़ी ही सावधानीसे करना चाहिये।

भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणसे कहा है...

बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥


'हे विभीषण! नरकमें रहना अच्छा है, परन्तु विधाता कभी दुष्टका संग न दे।' दुष्ट-संगसे केवल दुराचारी मनुष्योंका ही संग नहीं समझना चाहिये । इन्द्रियोंका कोई भी विषय, जो हमारे मनमें असत् विचार तथा विषयोंकी लालसा उत्पन्न करे और भगवत्प्राप्तिके मार्गसे हमारे चित्तको चलायमान कर दे, दुःसंग हो सकता है। हमें न कोई ऐसी चेतन वस्तु या जड दृश्य देखना चाहिये, न ऐसी बात सुननी चाहिये, न ऐसी चर्चा करनी चाहिये, न वैसे स्थानमें जाना चाहिये, न वैसी पुस्तक या पत्रिका पढ़नी चाहिये, न वैसा चित्र देखना चाहिये, न वैसी वस्तु खानी, सूँघनी या स्पर्श करनी चाहिये और न वैसा विचार ही करना चाहिये, जिससे हमारे चित्तमें विषयचिन्तनकी प्रबलता हो जाय। याद रखना चाहिये कि मनुष्यमें अच्छे और बुरे भावोंकी उत्पत्ति और वृद्धिमें कम-से-कम ये दस बातें प्रधान कारण होती हैं- स्थान, अन्न, जल, परिवार, अड़ोस-पड़ोस, दृश्य, साहित्य, आलोचना, आजीविकाका कार्य और उपासना । यदि ये सब सात्त्विक होते हैं तो इनके सेवन से सात्त्विकता बढ़ती है। इन्हींका सेवन सत्संग है और यदि ये राजस या तामस हैं तो इनका सेवन दुःसंग है और उससे अज्ञानकी वृद्धि होकर तमाम दोषोंका विकास हो जाता है।

अतएव दुःसंगका सब प्रकारसे सर्वथा त्याग करना चाहिये।

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नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥