भगवत्सम्बन्धी तत्त्व - रहस्य तथा लीला-कथाओंको छोड़कर इन्द्रियोंको भोगके समय तृप्ति देनेवाले लौकिक विषयोंका चिन्तन ही सर्वनाशकी जड़ है । चित्त निरन्तर या अधिक समयतक जिस विषयका चिन्तन करता है, उसीमें उसकी आसक्ति होती है। दुःसंगसे- सांसारिक विषयों और विषयी पुरुषोंके शरीर, वाणी और मनद्वारा किये हुए संगसे स्वाभाविक ही विषयासक्ति बढ़ती है। आसक्तिसे कामना होती है, यह कामना ही समस्त पापोंका मूल है; कामनाकी तृप्तिसे अधिक प्राप्तिके लिये लोभ उत्पन्न होता है और अतृप्तिसे वही कामना क्रोधके रूपमें परिणत हो जाती है। इसीलिये श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्णने राग या आसक्तिरूपी रजोगुणसे उत्पन्न कामको ही पापोंके होनेमें प्रधान कारण बतलाया है। अर्जुनने पूछा कि 'भगवन्! मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती पकड़ा सा जाकर किसकी प्रेरणासे पाप करता है?'
इसके उत्तरमें भगवान् स्पष्ट कहते हैं...
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विध्येनमिह वैरिणम् ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 3 । 37)
'रजोगुणसे उत्पन्न यह काम ही क्रोध है, इस महापापी कामका पेट कभी नहीं भरता; इस विषयमें तुम इस कामको ही (पाप करानेवाला) अपना शत्रु मानो।'
यद्यपि कामसे लोभ और क्रोध दोनों ही उत्पन्न होते हैं परन्तु संसारमें मनमानी थोड़ी ही कामनाओंकी पूर्ति होती है; अधिकांशमें तो विफलता ही प्राप्त होती है। विफलतामें क्रोध उत्पन्न होता है; क्रोधकी उत्पत्ति हो जानेपर मनुष्य विवेक विचारशून्य हो जाता है। उसे हिताहित कुछ भी नहीं सूझता, वह पिशाचकी भाँति केवल विनाशका ही प्रयत्न करता है। इस मोहमें उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, और स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि मारी जाती है। बुद्धिके नष्ट होनेपर वह इस लोक और परलोकके कल्याणपथसे गिर जाता है-उसका सर्वनाश हो जाता है।
ठीक यही बात श्रीभगवान्ने भी गीताके अध्याय 2, श्लोक 62-63 में कही है..
ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
'विषयोंके चिन्तनसे मनुष्यकी विषयोंमें आसक्ति होती हैं, आसक्तिसे कामना उत्पन्न होती है, (कामकी तृप्तिमें बाधा होनेसे) उस कामसे ही क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोधसे सम्मोह होता है, सम्मोहसे स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे (पुरुषका) सर्वनाश हो जाता है।'
सर्वनाशके कारणभूत विषयोंका चिन्तन होनेमें विषय और विषयी पुरुषोंका संग ही प्रधान है, यही दुःसंग है; अतएव इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये ।