जबतक दोषोंका समूल विनाश न हो जाय, तबतक तनिक-से दोषसे डरते ही रहना चाहिये; जैसे ईंधनमें दबी हुई जरा-सी चिनगारी हवाके जोरसे विशाल अग्निका रूप धारण कर लेती है, इसी प्रकार दबा हुआ जरा-सा भी दोष कुसंग पाते ही पनपकर विशाल रूप धारण कर लेता है। पहले-पहल जब मनमें काम-क्रोधका विकार उत्पन्न होता है तो उसकी एक लहर-सी ही आती है, परन्तु कुसंग पाते ही वह लहर समुद्र बन जाती है; फिर चारों ओरसे सारे हृदयपर उसीका अधिकार हो जाता है, सद्विचारके प्रवेशकी भी गुंजाइश नहीं रह जाती; उससे सर्वनाश ही होता है।
अतएव यह नहीं समझना चाहिये कि हमारे अन्दर सद्गुण अधिक हैं और दोष कम हैं, इससे कुसंगसे हमारी क्या हानि होगी! वरं सदा-सर्वदा अत्यन्त सावधानी के साथ सब प्रकारसे कुसंगका त्याग ही करना चाहिये ।