नदीमें तैरनेवाले मनुष्यके लिये सबसे अधिक आवश्यक काम होता है हाथों और पैरोंसे नदीके जलको फेंकते जाना, निरन्तर जलको काटते रहना; तभी नया तैराक नदीके पार जा सकता है। जलको फेंकना छोड़ दे तो तत्काल डूब जाय। इसी प्रकार इस महाभयावनी दुस्तर मायानदीको तैरकर जो उस पार जाना चाहते हैं, उन्हें अहंकार और विषयासक्तिरूपी जलको बराबर अलग फेंकते रहना चाहिये। अहंकार और आसक्तिरूपी जलसे ही यह मायानदी भरी है; जो अहंकार और आसक्तिको दूर नहीं फेंक सकता, इनका त्याग नहीं करना चाहता, वह इस मायानदीके जलमें रमकर अतलतलमें डूब जायगा ।
इसलिये संगत्याग अवश्य करना चाहिये; परन्तु हाथ-पैर मारते-मारते भी उनके थक जानेकी अथवा श्वास टूट जानेकी सम्भावना है, अतएव बीच-बीचमें ऐसा अवलम्बन चाहिये जहाँ कुछ देर ठहरकर वह विश्राम सके। इस मायानदीमें भी केवल संगत्यागसे काम नहीं चलता, इसमें भी विश्रामस्थल चाहिये। वे विश्रामस्थल सन्तोंके सुधामय वचन ही हैं, जिनके सहारेसे नवीन बल प्राप्त होता है और उस बलसे मनुष्य मायासमुद्रके पार पहुँच जा सकता है। वस्तुतः सन्तसेवी साधकको अपने बलसे तैरना पड़ता ही नहीं, वह तो सन्त महानुभावोंकी कृपारूपी सुदृढ़ जहाजपर सवार होकर अनायास ही तर जाता है।
इसीलिये देवर्षि महानुभावोंकी सेवा करनेको कहते हैं
श्रीमद्भागवतमें भगवान् कहते हैं...
(11।26।32)
'जलमें डूबते हुए लोगोंके लिये दृढ़ नौकाके समान इस भयंकर संसार-सागरमें गोते खानेवालोंके लिये ब्रह्मवेत्ता शान्तचित्त सन्तजन ही परम अवलम्बन हैं। '
महानुभाव सन्तोंकी सेवासे पाप-ताप और मोह अनायास ही दूर हो जाते हैं।
(1126/31)
'जिस प्रकार भगवान् अग्निदेवका आश्रय लेनेपर शीत, भय और अन्धकार तीनोंका नाश हो जाता है, इसी प्रकार सन्त पुरुषोंके सेवनसे पापरूपी शीत, जन्म-मृत्युरूपी भय और अज्ञानरूपी अन्धकार- ये कोई भी नहीं रहते।'
निर्मल हरिभक्तिकी प्राप्तिके लिये महापुरुषोंकी चरणसेवा ही प्रधान है।
प्रह्लाद कहते हैं...
'हे पिता ! जिन भगवान् श्रीहरिके चरणोंका स्पर्श समस्त अनर्थोंकी निवृत्ति करनेवाला है, उन श्रीहरिचरणोंमें तबतक प्रेम नहीं होता जबतक अकिंचन (सब कुछ भगवान्को अर्पण कर चुकनेवाले) साधु महान् पुरुषोंकी चरणधूलिसे मस्तकका अभिषेक न किया जाय।'
महात्मा जडभरत राजा रहूगणसे कहते हैं...
'हे रहूगण ! यह भगवत्तत्त्वका ज्ञान और भगवत्प्रेम तप, यज्ञ, दान, गृहस्थाश्रमद्वारा परोपकार, वेदाध्ययन और जल, अग्नि एवं सूर्यकी उपासनासे नहीं मिलता। यह तो महापुरुषोंके चरणोंकी धूलिमें स्नान करनेसे अर्थात् उनकी चरणसेवासे ही मिलता है।'
परन्तु इतना स्मरण रहे कि महापुरुषोंकी सेवाका अर्थ केवल उनके समीप रहना या उनके शरीरकी सेवा करना ही नहीं है। उसकी भी यथायोग्य आवश्यकता और सार्थकता है; परन्तु जबतक हम उनके आज्ञानुसार क्रिया नहीं करते, उनके इशारेपर नहीं चलते एवं उनकी रुचिके अनुसार अपना जीवन निर्माण नहीं करते तबतक सेवामें त्रुटि ही समझनी चाहिये। अतएव इस बात को समझकर सर्वदा और सर्वथा महानुभावोंकी सेवा करनी चाहिये।
परन्तु इसमें ममता एक बड़ी बाधा है। ममताके बन्धनसे सन्तसेवा ही नहीं हो सकती। घर मेरा, शरीर मेरा, परिवार मेरा, धन मेरा, सम्बन्धी मेरे मकान मेरा, जमीन मेरी-इस प्रकार मेरे-मेरेके अनगिनत बन्धनोंमें जीव बँधा है, इन ममताके बन्धनोंको तोड़ना होगा। अवश्य ही सत्संग और सन्तोंकी सेवारूपी दिव्य मणिदीपकके प्रकाशसे ममतारूपी अन्धकारमयी रात्रिका अन्धकार बहुत कम हो जाता है, तथापि पहले सन्तसंगमें जानेके लिये भी तो ममताको कम करनेकी आवश्यकता है। अतएव संसारके इन ममत्वके विषयोंको दुःखरूप, अनित्य और अज्ञानमूलक समझकर इनके प्रति मेरे भावको सर्वथा त्याग करना चाहिये। यह समझना चाहिये कि संसारमें मेरा कुछ भी नहीं है। जिस शरीरको मनुष्य मेरा ही नहीं वरं 'मैं' कहता है वह भी नष्ट हो जाता है, तब फिर अन्य वस्तुओंमें मेरापन समझना तो मूर्खता ही है। मायासे तरनेके लिये इस मेरेपनका नाश जरूर करना चाहिये। जो ऐसा करता है वह मायासे तर जाता है।