मायासे तरनेके लिये पूर्वसूत्रमें तीन उपाय बतलाये गये हैं, अब इस सूत्र में चार उपाय बतलाये जाते हैं और अगले दो सूत्रों में क्रमशः पाँच उपाय या लक्षण और बतलायेंगे।
ममताका त्याग दिन-रात ममत्वकी वस्तुओंके बीचमें रहने से नहीं होता; संगसे तो ममता उलटी बढ़ती है; अतएव साधकको एकान्त-सेवन करना चाहिये।
श्रीभगवान्ने भी गीतामें कहते हैं...
'एकान्त स्थानमें रहने और मनुष्योंकी भीड़-भाड़में प्रीति न रखनेकी आज्ञा दी है।'
मनुष्य कितना भी साधन करनेकी चेष्टा करे, परन्तु जबतक वह विषय-वासनासे जकड़े हुए जनसमुदायमें और मोहक विषयोंसे भरे हुए स्थानोंमें रहेगा तबतक भगवान्में उसका मन लगना बहुत कठिन है; इसीलिये साधकको एकान्त देशमें रहकर भक्तिका साधन करना बतलाया गया है। साथ ही भगवान् के साथ प्रेमका बन्धन बाँधनेके लिये लोकबन्धनको तोड़ना आवश्यक है। एकान्त देशसेवनसे लोकसंग छूट जानेके कारण लोकबन्धन स्वयमेव ही ढीला हो जायगा । इसके अतिरिक्त भगवान्के रहस्य, प्रभाव और तत्त्वके साथ मृत्युमय और दुःखालय इस लोककी तुलना करके बारम्बार विचार करनेपर लोकबन्धन आप ही टूट जाता है।
इसके बाद भक्तिके साधकको सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणोंसे परे होना पड़ेगा। संसारका प्रकाश इन गुणोंसे ही होता है। गुणका ही कार्य यह संसार है, अतएव इस संसारके पदार्थोंमें अनासक्ति या विरक्ति होना ही निस्त्रैगुण्य या असंसारी होना है। जो मनुष्य विषयासक्त और विषयकामी है, वही गुणबद्ध है और जो भगवदासक्त और भगवत्प्रेमी है वही निस्त्रैगुण्य है। जो निस्त्रैगुण्य होगा वह योगक्षेमकी चिन्ता क्यों करने लगा ? संसारमें तो उसका कोई प्रलोभन ही नहीं है, क्योंकि वह निस्त्रैगुण्य है और मोक्षकी सिद्धिसे भी वह नि:स्पृह है; क्योंकि वह भगवान्का प्रेमी है। अप्राप्तकी प्राप्तिको 'योग' और प्राप्तके संरक्षणको 'क्षेम' कहते हैं। इसमें केवल भोजनाच्छादनका भाव ही नहीं है; पारमार्थिक अर्थमें तो योगका अर्थ है भगवत्-प्राप्ति या भगवत्-प्राप्तिका सफल साधन, और क्षेमका अर्थ है भगवत्-प्राप्तिके साधनका संरक्षण। प्रेमी भगवद्भक्त इन दोनों ही अर्थोंमें योगक्षेमकी परवा नहीं करता, वह तो भगवत् प्रेममें ही मस्त रहकर भगवत्-प्रेरणासे सदा-सर्वदा भगवदनुकूल स्वाभाविक कर्म करता रहता है। भक्तका योगक्षेम स्वयं भगवान् ही चलाते हैं।
श्रीभगवान्ने गीतामें स्वयं कहा है...
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
(9।22)
'जो अनन्य भक्त निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी निष्काम उपासना करते हैं उन नित्य मुझमें लगे रहनेवाले भक्तोंका योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।'*
भोजनादिकी चिन्ता तो साधारण विश्वासी भक्तको भी नहीं करनी चाहिये; जो भोजनादिके लिये भगवान्का भरोसा न रखकर न्याय और सत्यमार्गका तथा सदाचारका त्यागकर पापकी शरण लेते हैं वे तो एक प्रकारसे नास्तिक ही हैं।
'वैष्णव आहारादिके लिये व्यर्थ ही चिन्ता करते हैं। जो भगवान् समस्त विश्वके सब जीवोंका भरण-पोषण करते हैं वे क्या अपने सेवकोंको कभी भूल सकते हैं ?