योगक्षेमकी चिन्ताका त्याग करनेवाला कर्मफलका त्यागी होता ही है, अथवा योगक्षेमके त्यागके लिये भी कर्मफलके त्यागकी आवश्यकता होती है। वस्तुतः अब यहाँसे प्रेमी भक्तके लक्षणोंका आरम्भ हो गया है। ये भक्तिके साधकोंके लिये आदर्श साधन हैं और सिद्ध प्रेमी भक्तोंके स्वाभाविक गुण ! भक्त जो कुछ करता है वह भगवान्के लिये ही करता है, उसे उसका अपने लिये कुछ भी फल नहीं चाहिये। उसकी न कर्ममें आसक्ति है और न उसके फलमें; वह तो यन्त्रवत् कर्म करता रहता है। परन्तु जहाँतक उसे यह स्मरण रहता है कि मैं यन्त्र हूँ, भगवान् के लिये कर्म करता हूँ, वहाँतक वह कर्मफलका ही त्यागी कहा जा सकता है; कर्मका त्यागी तो तब होगा जब उसे यह भी पता नहीं रहेगा कि मैं भी कुछ करता हूँ। जब मन-बुद्धिके पूर्ण समर्पण भगवान् उसके अहंकारको सर्वथा हरण करके स्वयं ही उसके हृदयमन्दिरमें बैठकर कर्म करने-कराने लगेंगे, तब वह कर्मोंका सम्पूर्ण त्यागी होकर सर्वथा निर्द्वन्द्व हो जायगा । फिर उसे सुख दुःख, हानि-लाभ, अपना-पराया, मैं तू आदि द्वन्द्वोंसे कोई प्रयोजन ही नहीं रह जायगा । परन्तु जबतक ऐसी स्वाभाविक स्थिति न हो तबतक साधनरूपसे कर्मफलत्याग और भगवत् विरोधी अथवा अनावश्यक कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके निर्द्वन्द्व होनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
श्रीभगवान् कहते हैं...
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥
(गीता 2।45)
'हे अर्जुन! वेद तीनों गुणोंके प्रकाशरूप संसारको प्रकाश करनेवाले हैं; अतएव निस्त्रैगुण्य अथवा असंसारी (निष्कामी), सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंसे रहित, योगक्षेमकी इच्छा न करनेवाला, नित्य सत्त्वमें स्थित और परमात्मपरायण हो जाओ।'