साधनकी दृष्टिसे उपर्युक्त श्रीमद्भगवद्गीताके श्लोक (2।45) - के अनुसार तीनों गुणोंके प्रकाशरूप संसारको प्रकट करनेवाले वेदोंके त्यागसे निष्कामी बननेका अर्थ बहुत ही ठीक है। सकाम भावका त्याग ही वेदत्याग है । परन्तु देवर्षि नारद यहाँ जिस प्रेमावस्थाका वर्णन कर रहे हैं, उस अवस्थामें तो भक्त केवल एक अविच्छिन्न अखण्ड भगवत्प्रेमके महान् सागरमें डूबकर तन्मय हो जाता है; इससे वेदोंका आश्रय स्वयमेव ही छूट जाता है, उससे फिर लौकिक-वैदिक कोई सी भी क्रिया यथाविधि नहीं हो सकती। सारे नियमोंका अपने-आप टूट जाना ही इस प्रेमका एक नियम है। यह भी शास्त्रविधि ही है।
इस स्थितिमें वेद अपने अनुयायीको वेदोंका परमफल प्राप्त करते देखकर उसकी चरम तृप्तिपर स्वयं तृप्त होकर उसे छोड़ देते हैं। यह वेदत्याग तिरस्कारमूलक नहीं है, वरं तृप्तिमूलक है। वह जान-बूझकर वेदोंको नहीं छोड़ता, वेद ही उसे पूर्णकाम समझकर अपना आधिपत्य उसपरसे उठा लेते हैं। इस अवस्थामें वह प्रेमी भक्त विधि निषेधमय वेदोंको लाँघकर बस, केवल एक अनिर्वचनीय हरिप्रेममें ही मतवाला रहता है; वह भगवत्प्रेमकी एक जीती जागती मूर्ति होता है। स्वयं भगवान् ही उसके शरीरमें दिव्य प्रेमके रूपमें प्रकट होकर लीला करते हैं।