वह प्रेमी भक्त उस परम महान् वस्तुको पा लेता है, जिसके पानेपर सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। जगत्के प्रेम, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, बल, यश, ज्ञान, वैराग्य आदि समस्त पदार्थ, जिनके लिये भोगी और त्यागी सभी मनुष्य अपनी-अपनी रुचिके अनुसार सदा ललचाते रहते हैं, भगवत्प्रेमरूपी दुर्लभ पदार्थके सामने अत्यन्त तुच्छ हैं। विश्वभरमें फैले हुए उपर्युक्त समस्त पदार्थों को एक स्थानपर एकत्रित किया जाय तो भी सब मिलकर जिस भगवानुरूपी समुद्रके एक जलकणके समान ही होते हैं, वे भगवान् स्वयं जिस प्रेमके आकर्षणसे सदा खिंचे रहते हैं, उस प्रेमके सामने संसारके पदार्थ किस गिनतीमें हैं ?
श्रीशुकदेव मुनि कहते हैं....
जो परम कल्याणके स्वामी भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करता है वह अमृतके समुद्रमें क्रीड़ा करता है। गढ़यामें भरे हुए मामूली गन्दे जलके सदृश किसी भी भोगमें या स्वर्गादिमें उसका मन चलायमान नहीं होता।' प्रेमामृतसमुद्रमें डूबा हुआ भक्त क्यों अन्य पदार्थोंकी इच्छाकरने लगा ?
जैसे भक्त भोग, मोक्ष आदिकी इच्छा नहीं करता; वैसे ही इनके नष्ट हो जानेका शोक भी नहीं करता। भोगोंके नाशको वह परमात्माकी लीला समझता है, इससे सदा - हर हालतमें आनन्दमें ही रहता है। परन्तु भगवत्प्रेमके सेवनमें यदि सायुज्य मोक्षके साधनमें कमी आती है तो वह उसके लिये भी शोक नहीं करता; वरं सदा यही चाहता है कि मेरा भगवत्प्रेम बढ़ता रहे, चाहे जन्म कितने ही क्यों न धारण करने पड़ें।
इसी प्रकार वह किसी जीवसे या लौकिक दृष्टिसे प्रतिकूल माने जानेवाले पदार्थ या स्थितिसे कभी द्वेष नहीं करता। वह सब जीवोंमें अपने प्रभुको और सब पदार्थों और स्थितिमें प्रभुकी लीलाको देख-देखकर क्षण-क्षणमें आनन्दित होता है।
गोपियाँ उद्धवजीसे कहती हैं
ऊधौ, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम सँग, को आराधै ईस ॥
मन अपने पास रहता ही नहीं, तब वह दूसरेमें कैसे रमे ? इसीलिये तो प्रेमियोंके भगवान्का नाम 'मनचोर' हैं
मधुकर स्याम हमारे चोर ।
मन हर लियो माधुरी मूरति निरख नयनकी कोर ॥
वे प्रेमी भक्तके चित्तको ऐसी चातुरीसे चुराकर अपनी सम्पत्ति बना लेते हैं कि उसपर दूसरेकी कभी नजर भी नहीं पड़ सकती। दूसरा कोई दीखे तब न कहीं उसमें आसक्ति या प्रीति हो, परन्तु जहाँ मनमें दूसरेकी कल्पनातकको स्थान नहीं मिलता, वहाँ किसमें कैसे आसक्ति या रति हो।
प्रेममयी गोपियोंने कहा है.....
स्याम तन स्याम मन स्याम है हमारो धन,आठों जाम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है ॥
स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं तिये, आँधेकी-सी लाकरी अधार स्याम नाम है ॥
स्याम गति स्याम मति स्याम ही है प्रानपति, स्याम सुखदाई सों भलाई सोभाधाम है ॥
ऊधौ तुम भए बौरे पाती लैके आए दौरे, जोग कहाँ राखेँ यहाँ रोम-रोम स्याम है ॥
जब एक प्रियतम श्रीकृष्णको छोड़कर दूसरेका मनमें प्रवेश ही निषिद्ध है तब दूसरे किसीकी प्राप्तिके लिये उत्साह तो हो ही कैसे? कोई किसीको देखे, सुने, उसके लिये मनमें इच्छा उत्पन्न हो, तब न उसके लिये प्रयत्न किया जाय ? मन किसीमें रमे, तब न उसे पानेके लिये उत्साह हो। मन तो पहलेसे ही किसी एकका हो गया; उसने मनपर अपना पूरा अधिकार जमा लिया और स्वयं उसमें आकर सदाके लिये बस गया। दूसरे किसीके लिये कोई गुंजाइश ही नहीं रह गयी; यदि कोई आता भी है तो उसे दूरसे ही लौट जाना पड़ता है! क्या करें, जगह ही नहीं रही।
रोम रोम हरि रमि रहे, रही न तनि कौ ठौर ।
नेत्र बेचारे मनकी अनुमति बिना किसको देखें ? जब कोई कहीं दीखता ही नहीं, तब उसको पानेके लिये उत्साहकी बात ही नहीं रह जाती।
दूसरी बात यह है कि उत्साह होता है मनुष्यको किसी सुखकी इच्छासे। जब समस्त सुखोंका खजाना ही अपने पास है तब क्षुद्र सुखके लिये उत्साह कैसे हो? इसलिये प्रेमोत्साहके पुतले भगवत्प्रेमी पुरुषोंमें लौकिक कार्योंके प्रति-विषयोंके प्रति कोई भी उत्साह नहीं देखा जाता।
भगवान्ने स्वयं कहा है...
'जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता। है, न कामना करता है तथा जो शुभ, अशुभ सबका त्यागी है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।'