प्रेम और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं; जिस प्रकार वाणी से ब्रह्मका वर्णन असम्भव है, वेद 'नेति नेति' कहकर चुप हो जाते हैं, इसी प्रकार प्रेमका वर्णन भी वाणीद्वारा नहीं हो सकता। संसारमें भी हम देखते हैं कि प्रिय वस्तुके मिलनेपर, उसका समाचार पानेपर, उसके स्पर्श, आलिंगन और प्रेमालापका सुअवसर मिलने पर हृदयमें जिस आनन्दका अनुभव होता है, उसका वर्णन वाणी कभी नहीं कर सकती। जिस प्रेमका वर्णन वाणीके द्वारा हो सकता है, वह तो प्रेमका सर्वथा बाहरी रूप है। प्रेम तो अनुभवकी वस्तु है।
भगवान् श्रीराम लंकामें स्थित जगज्जननी जानकीजीको सँदेसा कहलाते हैं...
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ॥
प्रेमका अनुभव है मनमें और मन रहता है सदा अपने प्रेमीके पास। फिर भला, मनके अभावमें वाणीको यत्किंचित् भी वर्णन करनेका असली मसाला कहाँसे मिले ? अतएव प्रेमका जो कुछ भी वर्णन मिलता है वह केवल सांकेतिकमात्र है—बाह्य है। प्रेमकी प्राप्ति हुए बिना तो प्रेमको कोई जानता नहीं और प्राप्ति होनेपर वह अपने मनसे हाथ धो बैठता है। जलमें मुखसे शब्दका उच्चारण तभीतक होता है जबतक कि मुख जलसे बाहर रहता है, जब मनुष्य अतलतलमें डूब जाता है तब तो डूबनेवालेकी लाशका पता लगना भी कठिन होता है। इसी प्रकार जो प्रेमसमुद्रमें डूब चुका है, वह कुछ कह ही नहीं सकता और ऊपर-ऊपर डुबकियाँ मारने और डूबने उतरानेवाले जो कुछ कहते हैं सो केवल ऊपर-ऊपरकी ही बात कहते हैं...
डूबै सो बोलै नहीं, बोलै सो अनजान ।
गहरौ प्रेम - समुद्र कोउ डूबै चतुर सुजान ॥