जैसे गूँगा गुड़ खाकर प्रसन्न होता है, हँसता है, परन्तु गुड़का स्वाद नहीं बतला सकता; इसी प्रकार प्रेमी महात्मा प्रेमका अनुभव कर आनन्दमें निमग्न हो जाते हैं, परन्तु अपने उस अनुभवका स्वरूप दूसरे किसीको भी बतला नहीं सकते। इस प्रेममें तन्मयता होती है। इसलिये प्रेमी यह नहीं जानता कि मैं क्या हूँ और क्या जानता हूँ।
इसीसे श्रीराधाने एक समय कहा है कि हे सखि ! मैं कृष्णप्रेमकी बात कुछ भी नहीं जानती, नहीं समझती और जो कुछ जानती हूँ उसे प्रकट करनेयोग्य भाषा मेरे पास नहीं है। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि जब हृदयके अंदर उनका स्पर्श होता है, तभी मेरा सारा ज्ञान चला जाता है।