किसी गुणको देखकर जो प्रेम होता है वह तो गुण न दीखनेपर नष्ट हो जा सकता है। परन्तु असली प्रेममें गुणोंकी अपेक्षा नहीं है। प्रेमीको अपने प्रेमास्पदमें गुण-दोष देखनेका अवकाश ही कहाँ मिलता है, वहाँ तो स्वाभाविक सहज प्रेम होता है। अथवा यों कह सकते हैं कि प्रेम गुणातीत हो होता है। वह तीनों गुणोंके दायरेसे परेकी वस्तु है।
प्रेममें कुछ भी कामना नहीं होती, क्योंकि प्रेममें प्रेमास्पदको सुखी देखनेकी एक इच्छाको छोड़कर अन्य किसी स्वार्थकी वासना ही नहीं रहती। उसका तो परम अर्थ केवल प्रेमास्पद ही है। जहाँ कुछ भी पानेकी वासना है वहाँ तो प्रेमका पवित्र आसन कुटिल कामके द्वारा कलंकित हो रहा है। अतएव प्रेममें कामनाका लेश भी नहीं है। सच्चा प्रेम कभी घटता तो है ही नहीं, वरं वह सदा बढ़ता ही रहता है। प्रेममें कहीं परिसमाप्ति नहीं है। प्रेमीका सदा यही भाव रहता है कि मुझमें प्रेमकी कमी ही है। किसी भी अवस्थामें उसे अपना प्रेम बढ़ा हुआ नहीं दीखता, अतएव उसकी प्रत्येक चेष्टा स्वाभाविक ही प्रेम बढ़ाने की होती है। इस विच्छेदरहित प्रेमकी सतत वृद्धिका क्रम कभी टूटता ही नहीं। यह विशुद्ध प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही रहता है।
प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष ।
पै पूनौ यामें नहीं, ताते कबहुँ न सेष ॥
यह प्रेम हृदयकी गुप्त गुहामें रहनेवाला होनेके कारण सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर होता है और केवल अनुभवमें ही आता है।
प्रेमी रसखानजी मानो इसी सूत्रका अनुवाद करते हुए कहते हैं...
बिनु जोबन गुन रूप धन, बिनु स्वारथ हित जानि ।
सुद्ध, कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि ॥
अति सूच्छम, कोमल अतिहि, अति पतरो, अति दूर ।
प्रेम कठिन सबते सदा, नित इकरस भरपूर ॥
रसमय स्वाभाविक, बिना स्वारथ, अचल महान ।
सदा एक रस बढ़त नित सुद्ध प्रेम रसखान ॥
यह प्रेम परम आनन्दमय है और आनन्दमय श्रीहरिके साथ मिलाकर प्रेमीको आनन्दमय बना देता है।