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नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 55 - Sutra 55

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तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥

55 - इस प्रेमको पाकर प्रेमी इस प्रेमको ही देखता है, प्रेमको ही सुनता है, प्रेमका ही वर्णन करता है और प्रेमका ही चिन्तन करता है।

परम प्रेमके दिव्य रसमें डूबा हुआ प्रेमानन्दमय प्रेमी सर्वत्र अपने प्रेममय, रसमय प्रियतमको ही देखता है। उसे कहीं दूसरी वस्तु दीखती ही नहीं।

ऐसी ही स्थितिमें एक गोपी कहती है...


जित देखौं तित स्याममई है।
स्याम कुंज बन जमुना स्यामा, स्याम गगन घनघटा छई है।
सब रंगनमें स्याम भरो है, लोग कहत यह बात नई है।
मैं बौरी, की लोगन ही की स्याम पुतरिया बदल गई है ॥
चंद्रसार रबिसार स्याम है, मृगमद स्याम काम बिजई है।
नीलकंठको कंठ स्याम है, मनो स्यामता बेल बई है।
श्रुतिको अच्छर स्याम देखियत, दीपसिखापर स्यामतई है ।
नर देवनकी कौन कथा है, अलख ब्रह्म छबि स्याममई है ।

दूसरा भक्त कहता है...


बाटनमें घाटनमें बीथिनमें बागनमें,
बृच्छनमें बेलिनमें बाटिकामें बनमें ।
दरनमें दिवारनमें देहरी दरीचनमें,
हीरनमें हारनमें भूषनमें तनमें ॥
काननमें कुंजनमें गोपिनमें गायनमें,
गोकुलमें गोधनमें दामिनमें घनमें।
जहाँ-जहाँ देखौं तहाँ स्याम ही दिखाई देत,
सालिगराम छाइ रह्यो नैननमें मनमें ॥
कहि न जाय मुखसौं कछू स्याम-प्रेमकी बात ।
नभ जल थल चर अचर सब स्यामहि स्याम दिखात ॥

ब्रह्म नहीं, माया नहीं, नहीं जीव, नहिं काल ।
अपनीहू सुधि ना रही, रह्यौ एक नँदलाल ॥
को कासों केहि बिधि कहा, कहै हृदैकी बात ।
हरि हेरत हिय हरि गयो हरि सर्वत्र लखात ॥


ऐसी अवस्थामें उसके कानमें जो कुछ भी आवाज आती है, वह केवल प्रेममयके प्रेमसंगीतकी स्वरलहरी ही होती है; वह सर्वदा उसकी मुरलीकी मीठी तानमें मस्त रहता है। इसी प्रकार उसके मुखसे भी प्रेममयको छोड़कर दूसरा शब्द नहीं निकलता। वह प्रेममयका गुण गाते-गाते कभी थकता ही नहीं, बात-बातमें उसे केवल दिव्य प्रेमरसामृतका ही अनुपम स्वाद मिलता रहता है और वह अतृप्त रसनासे सदा उसी अमृतरसपानमें मत्त रहता है। उसके चित्तमें तो दूसरेके लिये स्थान ही नहीं रह गया । वहाँ एकमात्र प्रियतमका ही अखण्ड साम्राज्य और पूर्ण अधिकार है। ऐसा जरा-सा भी स्थान नहीं, जहाँ किसी दूसरेकी कल्पनाकी स्मृति छायारूपसे भी आ सके। चित्त साक्षात् प्रियतमके प्रेमका स्वरूप ही बन जाता है;

इस अवस्थाका अनुमान करते  हुए कवि कहता है...


कानन दूसरो नाम सुनै, नहिं एकहि रंग रँगो यह डोरो
धोखेहुँ दूसरो नाम कढ़ें, रसना मुख बाँधि हलाहल बोरो ॥
ठाकुर चित्तकी वृत्ति यहै, हम कैसेहुँ टेक तजैं नहिं भोरो ।
बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो ॥


समस्त अंग केवल उसीका अनुभव कर रहे हैं। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसीको विषय करती हैं। आँखें अहर्निश सम्पूर्ण विश्वको श्याममय देखती हैं। कान सदा उसीकी मधुरातिमधुर शब्द- ब्रह्ममयी वेणुध्वनि सुनते हैं। नासिका नित्य-निरन्तर उसी नटवरके अंगसौरभको ही सूँघती है। जिह्वा अविच्छिन्नरूपसे उसी प्रेमसुधाका आस्वादन करती है और शरीर सर्वदा उसी अखिल सौन्दर्यमाधुर्य-रसाम्बुधि रसराज परम सुखस्पर्श आनन्दकन्द श्रीनन्दनन्दनके अनुपम स्पर्श-सुखका अनुभव करता है। आकाशमें वही शब्द है, वायुमें वही स्पर्श है, अग्निमें वही ज्योति है, जलमें वही रस है और पृथ्वीमें वही गन्ध बना हुआ है। सबमें वही भरा है। सबमें वही अनोखी रूपमाधुरीकी झाँकी दिखा रहा है। सर्वत्र प्रेम-ही-प्रेम, आनन्द ही आनन्द है । समस्त विश्व प्रेममय, आनन्दमय, रसमय या श्रीकृष्णमय है। सब कुछ आनन्दसे और सौन्दर्य- माधुर्यसे भरा है। दृश्य, द्रष्टा सभी मधुर हैं; हम-तुम सभी मधुर हैं; उस परमानन्द रस-सुधामय मधुराधिपतिका सभी कुछ मधुर है।

'मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः, माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः, मधुमत् पार्थिवं रजः'

सर्वत्र मधु ही मधु। इस प्रकार प्रेमी भक्तकी दृष्टिमें सर्वत्र प्रेममय भगवान् हैं और भगवान्‌की दृष्टिमें भक्त ।

भगवान्ने कहा ही है...


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि सच मे न प्रणश्यति ॥


(गीता 6।30)

'जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, न कभी मैं उसकी आँखोंसे ओझल होता हूँ और न वह मेरी आँखोंसे ओझल होता है।'

इस अवस्थामें प्रेमी भक्त जिस नित्य महान् दिव्य प्रेमामृत रससागरमें मग्न रहता है, वह सर्वथा अनिर्वचनीय है। यही प्रेमाभक्ति या पराभक्तिका स्वरूप है। यही महान् भूमानन्द है,इसी सर्वव्यापी भूमानन्दके साथ अल्प सुखका तारतम्य दिखलाती हुई श्रुति कहती है...

(छान्दोग्योपनिषद् 7 241)
'जहाँ दूसरेको नहीं देखता, दूसरेको नहीं सुनता, दूसरेको नहीं जानता वही भूमा है और जहाँ दूसरेको देखता है, दूसरेको सुनता है, दूसरेको जानता है वह अल्प है। जो भूमा है वह अमृत है और जो अल्प है वह मरा हुआ है।' इसीलिये प्रेम सदा मधुर, अविनाशी, सनातन और सत्य है।

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नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥