परम प्रेमके दिव्य रसमें डूबा हुआ प्रेमानन्दमय प्रेमी सर्वत्र अपने प्रेममय, रसमय प्रियतमको ही देखता है। उसे कहीं दूसरी वस्तु दीखती ही नहीं।
ऐसी ही स्थितिमें एक गोपी कहती है...
जित देखौं तित स्याममई है।
स्याम कुंज बन जमुना स्यामा, स्याम गगन घनघटा छई है।
सब रंगनमें स्याम भरो है, लोग कहत यह बात नई है।
मैं बौरी, की लोगन ही की स्याम पुतरिया बदल गई है ॥
चंद्रसार रबिसार स्याम है, मृगमद स्याम काम बिजई है।
नीलकंठको कंठ स्याम है, मनो स्यामता बेल बई है।
श्रुतिको अच्छर स्याम देखियत, दीपसिखापर स्यामतई है ।
नर देवनकी कौन कथा है, अलख ब्रह्म छबि स्याममई है ।
दूसरा भक्त कहता है...
बाटनमें घाटनमें बीथिनमें बागनमें,
बृच्छनमें बेलिनमें बाटिकामें बनमें ।
दरनमें दिवारनमें देहरी दरीचनमें,
हीरनमें हारनमें भूषनमें तनमें ॥
काननमें कुंजनमें गोपिनमें गायनमें,
गोकुलमें गोधनमें दामिनमें घनमें।
जहाँ-जहाँ देखौं तहाँ स्याम ही दिखाई देत,
सालिगराम छाइ रह्यो नैननमें मनमें ॥
कहि न जाय मुखसौं कछू स्याम-प्रेमकी बात ।
नभ जल थल चर अचर सब स्यामहि स्याम दिखात ॥
ब्रह्म नहीं, माया नहीं, नहीं जीव, नहिं काल ।
अपनीहू सुधि ना रही, रह्यौ एक नँदलाल ॥
को कासों केहि बिधि कहा, कहै हृदैकी बात ।
हरि हेरत हिय हरि गयो हरि सर्वत्र लखात ॥
ऐसी अवस्थामें उसके कानमें जो कुछ भी आवाज आती है, वह केवल प्रेममयके प्रेमसंगीतकी स्वरलहरी ही होती है; वह सर्वदा उसकी मुरलीकी मीठी तानमें मस्त रहता है। इसी प्रकार उसके मुखसे भी प्रेममयको छोड़कर दूसरा शब्द नहीं निकलता। वह प्रेममयका गुण गाते-गाते कभी थकता ही नहीं, बात-बातमें उसे केवल दिव्य प्रेमरसामृतका ही अनुपम स्वाद मिलता रहता है और वह अतृप्त रसनासे सदा उसी अमृतरसपानमें मत्त रहता है। उसके चित्तमें तो दूसरेके लिये स्थान ही नहीं रह गया । वहाँ एकमात्र प्रियतमका ही अखण्ड साम्राज्य और पूर्ण अधिकार है। ऐसा जरा-सा भी स्थान नहीं, जहाँ किसी दूसरेकी कल्पनाकी स्मृति छायारूपसे भी आ सके। चित्त साक्षात् प्रियतमके प्रेमका स्वरूप ही बन जाता है;
इस अवस्थाका अनुमान करते हुए कवि कहता है...
कानन दूसरो नाम सुनै, नहिं एकहि रंग रँगो यह डोरो
धोखेहुँ दूसरो नाम कढ़ें, रसना मुख बाँधि हलाहल बोरो ॥
ठाकुर चित्तकी वृत्ति यहै, हम कैसेहुँ टेक तजैं नहिं भोरो ।
बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो ॥
समस्त अंग केवल उसीका अनुभव कर रहे हैं। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसीको विषय करती हैं। आँखें अहर्निश सम्पूर्ण विश्वको श्याममय देखती हैं। कान सदा उसीकी मधुरातिमधुर शब्द- ब्रह्ममयी वेणुध्वनि सुनते हैं। नासिका नित्य-निरन्तर उसी नटवरके अंगसौरभको ही सूँघती है। जिह्वा अविच्छिन्नरूपसे उसी प्रेमसुधाका आस्वादन करती है और शरीर सर्वदा उसी अखिल सौन्दर्यमाधुर्य-रसाम्बुधि रसराज परम सुखस्पर्श आनन्दकन्द श्रीनन्दनन्दनके अनुपम स्पर्श-सुखका अनुभव करता है। आकाशमें वही शब्द है, वायुमें वही स्पर्श है, अग्निमें वही ज्योति है, जलमें वही रस है और पृथ्वीमें वही गन्ध बना हुआ है। सबमें वही भरा है। सबमें वही अनोखी रूपमाधुरीकी झाँकी दिखा रहा है। सर्वत्र प्रेम-ही-प्रेम, आनन्द ही आनन्द है । समस्त विश्व प्रेममय, आनन्दमय, रसमय या श्रीकृष्णमय है। सब कुछ आनन्दसे और सौन्दर्य- माधुर्यसे भरा है। दृश्य, द्रष्टा सभी मधुर हैं; हम-तुम सभी मधुर हैं; उस परमानन्द रस-सुधामय मधुराधिपतिका सभी कुछ मधुर है।
'मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः, माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः, मधुमत् पार्थिवं रजः'
सर्वत्र मधु ही मधु। इस प्रकार प्रेमी भक्तकी दृष्टिमें सर्वत्र प्रेममय भगवान् हैं और भगवान्की दृष्टिमें भक्त ।
भगवान्ने कहा ही है...
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि सच मे न प्रणश्यति ॥
(गीता 6।30)
'जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, न कभी मैं उसकी आँखोंसे ओझल होता हूँ और न वह मेरी आँखोंसे ओझल होता है।'
इस अवस्थामें प्रेमी भक्त जिस नित्य महान् दिव्य प्रेमामृत रससागरमें मग्न रहता है, वह सर्वथा अनिर्वचनीय है। यही प्रेमाभक्ति या पराभक्तिका स्वरूप है। यही महान् भूमानन्द है,इसी सर्वव्यापी भूमानन्दके साथ अल्प सुखका तारतम्य दिखलाती हुई श्रुति कहती है...
(छान्दोग्योपनिषद् 7 241)
'जहाँ दूसरेको नहीं देखता, दूसरेको नहीं सुनता, दूसरेको नहीं जानता वही भूमा है और जहाँ दूसरेको देखता है, दूसरेको सुनता है, दूसरेको जानता है वह अल्प है। जो भूमा है वह अमृत है और जो अल्प है वह मरा हुआ है।' इसीलिये प्रेम सदा मधुर, अविनाशी, सनातन और सत्य है।