पिछले सूत्रतक उस परा या मुख्या भक्तिका विवेचन हुआ जिसमें प्रेमी भक्त उस प्रेमाभक्तिसे अपने प्रियतम भगवान्के प्रेममय स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। इसीको श्रीमद्भागवतमें अहैतुकी - निर्गुण भक्ति तथा गीतामें ज्ञानीकी भक्ति कहा है। अहैतुकी भक्तिमें भक्तकी चित्तवृत्ति और कर्मगतिका प्रवाह अविच्छिन्नरूपसे स्वाभाविक ही भगवान्की ओर बहता रहता है अर्थात् उसका चित्त निरन्तर निष्काम अनन्य प्रेमभावसे भगवान् में लगा रहता है और उसकी समस्त क्रियाएँ श्रीभगवान्के लिये ही होती हैं (भागवत 3 29।11-12) और गीतोक्त दुर्लभ तत्त्वज्ञानी महात्मा भक्त भी सब कुछ वासुदेव ही देखता है (अध्याय 7। 17)। ये दोनों तो भगवत्स्वरूप ही हैं। अब यहाँ इस भक्तिकी अपेक्षा निम्न श्रेणीकी गौणी भक्तिका वर्णन किया
जाता है। यह गौणी भक्ति सात्त्विकी, राजसी और तामसी-भेदसे अथवा आर्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी-भेदसे तीन प्रकारकी है। जो भक्ति पापनाशके उद्देश्यसे सब कर्मफलोंको भगवान्में समर्पण करनेके रूपमें अथवा जिसमें पूजन करना कर्तव्य है यह समझकर भेद-दृष्टिसे पूजा की जाती है, वह सात्त्विकी है। (श्रीमद्भागवत 3 । 29 । 10) ।
जो भक्ति विषय, यश और ऐश्वर्यकी कामनासे भेददृष्टिपूर्वक केवल प्रतिमादिके पूजनके रूपमें ही की जाती है वह राजसी है (श्रीमद्भागवत 3 । 29 । 9) ।
जो भक्ति क्रोधसे हिंसा, दम्भ और मत्सरताको लेकर भेद-दृष्टिसे की जाती है वह तामसी है ( श्रीमद्भागवत 3 ।29 । 8) ।
इसी तरह आर्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी पुरुष त्रिविध उपासनासे तीन प्रकारकी भक्ति करते हैं; अर्थात् भक्तोंके भावभेदसे गौणी भक्तिके तीन भेद होते हैं।
गौणी भक्तिके साधनोंसे यद्यपि साक्षात् भगवत्-प्राप्ति नहीं होती, तथापि इस गौणी भक्तिके साधक भी सुकृती ही होते हैं और उन्हें भी भगवत्कृपासें इसका अनुष्ठान करते-करते अन्तमें भगवत्प्राप्तिकी मुख्य साधनस्वरूपा या साक्षात् भगवत् स्वरूपा प्रेमा भक्तिकी प्राप्ति होती है। भगवान्की भक्तिमें यही विशेषता है कि इसका अन्तिम फल दुर्लभ भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही है। इसीसे गौणी भक्तिको भी श्रेष्ठ और पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा ही होनेवाली माना गया है; क्योंकि भक्तिमात्रमें ही भगवान्का भजन, भगवान्का आश्रय, भगवान्का ध्यान किसी न-किसी रूपमें रहता है और भगवद्भजन, भगवदाश्रय तथा भगवान्के ध्यानका फल सीधा भगवत्प्राप्ति ही होता है। अतएव किसी प्रकारसे भी हो, भगवान्की भक्ति मनुष्यको अवश्य ही करनी चाहिये । परन्तु जहाँतक हो सके सात्त्विकी भक्ति अथवा त्रिभुवनके वैभवको भी अनर्थ एवं भगवान्को ही परम अर्थ - परम धन मानकर उसीके प्रेमकी प्राप्तिके लिये सच्चे अर्थार्थीके भावसे भक्ति करनी चाहिये।