इससे पहले भक्तिकी महिमा और कर्म, योग तथा ज्ञानादिकी अपेक्षा उसकी श्रेष्ठताका वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार यह दिखलाते हैं कि इस प्रकार सर्वश्रेष्ठ होनेपर भी भक्तिकी प्राप्ति अन्यान्य फलोंकी अपेक्षा सहज और सुलभ है। भक्तिकी प्राप्ति में न विद्याकी आवश्यकता है न धनकी, न श्रेष्ठ कुल प्रयोजनीय है और न उच्च वर्णाश्रम, न वेदाध्ययनकी आवश्यकता है न कठोर तपकी, न विवेककी जरूरत है न कठिन वैराग्यकी, आवश्यकता है केवल सरल भावसे भगवान्की अपार कृपापर विश्वास करके उनका सतत प्रेमभावसे स्मरण करनेकी । फिर सुलभता तो प्रत्यक्ष ही दीखने लगती है। भगवत्कृपा सबपर सदा-सर्वदा है। मनुष्य विश्वास नहीं करता, इसीसे वह वंचित रह जाता है।
भगवान्ने तो गीतामें डंकेकी चोट कहा है कि ...
'मैं सब प्राणियोंका सुहृद् हूँ, और जो मुझे सुहृद् जान लेता है वह उसी क्षण शान्ति पा जाता है'
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति
(गीता 5।29)
मनुष्यको चाहिये कि वह भगवत्कृपापर विश्वास करके यह मान ले कि मैं भगवत्कृपाके समुद्रमें डूब रहा हूँ। मेरे ऊपर नीचे, इर्द-गिर्द, भूत-भविष्यत्, सब स्थानों और सब कालमें भगवत्कृपा भरपूर है। ऐसा मानते ही वह उस भगवत्कृपाके प्रतापसे तुरन्त पाप-तापसे मुक्त होकर भगवान्की भक्तिका अधिकारी हो जाता है। भगवत्कृपापर इस प्रकार विश्वास और निश्चय करके भगवान्के अनन्य स्मरणका अभ्यास किसी भी अवस्थामें बालक, वृद्ध, युवा, स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, शूद्र कोई भी कर सकता है। इसमें न कुछ छोड़ना है और न ग्रहण करना है। सदा सबपर भगवत्कृपा होनेपर भी हमें जो विश्वास नहीं है, बस, उस विश्वासको स्थिर कर लेना है। फिर भक्तिकी प्राप्तिके सभी साधन अपने-आप सहज ही सिद्ध हो जायँगे - ('तस्याहं सुलभः पार्थ'–गीता 8 । 14) ।
भक्ति किसी और साधनसे नहीं मिलती, यह भजनसे ही मिलती है।