भगवत्प्रेम प्रकट होते ही मनुष्यको पागल कर देता है; अतः प्रेमी भक्त सदा प्रेमके नशेमें चूर हुआ दिन-रात प्रभुके ही गुण गाता, सुनता और चिन्तन करता रहता है। बाहरकी दूसरी बातोंका उसे होश ही नहीं रहता। जैसे पागल मनमानी बकता और करता है, इसी प्रकार वह प्रेमोन्मत्त भी प्रभुकी चर्चा में ही तल्लीन रहता है; क्योंकि उसके मनको यही अच्छा लगता है।
भागवतमें कहा है...
'भक्त चक्रपाणिभगवान्के कल्याणकारक एवं लोकप्रसिद्ध जन्मों और कर्मोंको सुनता हुआ, उनके अनुसार रखे गये नामोंको लज्जा छोड़कर गान करता हुआ संसारमें अनासक्त होकर विचरता है। इस प्रकारका व्रत धारणकर वह अपने प्रियतम प्रभुके नाम संकीर्तनमें प्रेम हो जानेके कारण द्रवितचित्त हुआ उन्मत्तके समान कभी अलौकिक भावसे खिलखिलाकर हँसता है, कभी रोता है, कभी चिल्लाता है, कभी ऊँचे स्वरसे गाने लगता है और कभी नाच उठता है।
यों उन्मत्त की तरह आचरण करता हुआ प्रेमी आनन्दमें भरकर कभी चुप हो जाता है, शान्त होकर बैठ जाता है। यह स्तब्धता उसकी पूर्णकामताका परिचय देती है। प्रभुकी मूर्ति हृदयमें प्रकट हो गयी, रूपमाधुरीमें आनन्दमत्त होकर भक्त ध्यानमग्न हो गया।
सुतीक्ष्णकी दशा बताते हुए गोसाईंजी कहते हैं—
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥
नृत्य करते-करते प्रभुमय बन जानेपर ऐसी ही अवस्था हुआ करती है। उसका चित्त और शरीर सर्वथा स्तब्ध-शान्त हो जाता है। आत्मा आनन्दमय बन जाता है। इसीको आत्माराम कहते हैं। इस आत्मारामस्थितिमें विषयतृष्णा तो कहीं रह ही नहीं जाती।
अन्य किसीका भी ज्ञान नहीं रहता। यही प्रेमाद्वैत या रसाद्वैत है। प्रियतमके साथ मिलकर प्रेमीका पृथक् अस्तित्व ही लोप हो जाता है।