शान्ति और परम आनन्द साक्षात् भगवान्का स्वरूप है। अपने प्रेमरूपमें स्वयं भगवान् ही अवतीर्ण होते हैं, इसलिये यह भगवत्प्रेम भी शान्ति और परमानन्दस्वरूप ही है। आनन्दमय भगवान् स्वयं ही अपनी ह्लादिनी नाम्नी आनन्दशक्तिको निमित्त बनाकर प्रेम और प्रेमिकाके रूपमें प्रकट होते हैं और स्वयं ही प्रेमास्पद बनकर अपने आनन्दका आप ही उपभोग करते हैं। यही उनकी आनन्दलीला है। यहाँपर यह समझ लेना चाहिये कि जिन भगवान्की भक्ति या प्रेम शान्तिरूप और परमानन्दरूप है, वे भगवान् निर्गुणवादियोंद्वारा माने हुए प्रकृतिसम्भव सत्त्व, रज, तमरूप त्रिगुणोंसे युक्त 'सगुण ब्रह्म' नहीं हैं। भगवान्का दिव्य तनु उनके अपने आनन्दांश, अपनी योगमायाके निमित्तसे नित्य ही प्रकट है।
इसीलिये आत्माराम, मुनि, जीवन्मुक्त महापुरुष, व्यास, नारद, शुकदेव, जनक, सनकादि महात्मा उनके एक-एक दिव्य गुण, दिव्य आभूषण, दिव्य गन्ध, दिव्य मुरली ध्वनि और दिव्य सौन्दर्यपर मुग्ध हो जाते हैं। यदि भगवान्में इस जगत्-प्रसविनी, आवरण करनेवाली मलिना मायाके ही गुणोंका विकास होता, या इसीसे निर्मित उनका शरीर होता तो मायाकी ग्रन्थिको काटे हुए ब्रह्मस्वरूप महात्माओंका उनकी ओर इतना आकर्षण कभी नहीं होता। निर्गुणवादी जिस भगवत्स्वरूपको शुद्ध सच्चिदानन्दघन ब्रह्म कहते हैं और वेद जिसे 'नेति नेति' कहकर संकेतसे समझाना चाहते हैं, वही मायातीत विज्ञानानन्दघन परमात्मा भक्तोंके प्रियतम भगवान् हैं। उनको शान्ति और आनन्दके समुद्र कहने से भी उनका यथार्थ वर्णन नहीं होता। उनका जो प्रेम है, वही परम शान्ति और परमानन्दस्वरूप है। इसी प्रेमका वर्णन देवर्षि नारदजी इस सूत्रमें कर रहे हैं।