भक्त सब कुछ भगवान्के अर्पण कर चुकता है, इसलिये उनके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी चिन्ता करनेकी उसे क्या आवश्यकता है? उसको तो केवल एक प्रियतम भगवान्के चिन्तनकी ही चिन्ता रहनी चाहिये । स्त्री, पुत्र, धन, जन, मानादि पदार्थ रहें या चले जायँ, उसे इनकी कोई परवा नहीं; क्योंकि वह तो इन्हें पहले ही भगवान् के समर्पण करके सर्वथा अकिंचन हो चुका है। फिर उसके पास इनकी चिन्ता करनेके लिये समय और चिन्ता करनेवाला चित्त भी कहाँ है?
उसके चित्तको तो एकमात्र चिन्ताहरण चिन्तामणिकी चिन्ताने चुरा लिया है। वे चतुर चौरचूडामणि कभी उसके चित्तको वापस देना ही नहीं चाहते, फिर वह चित्तके अभावमें किसी हानिकी चिन्ता ही कैसे करे ? अतएव इस पथके पथिकको लोकहानिकी कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये। उसे तो सबके सार अर्थ श्रीभगवान्का ही चिन्तन करना चाहिये। और भक्तके हृदयमें ऐसा ही होता भी है।