प्रेमकी प्राप्ति होनेपर लौकिक (और वैदिक) कर्म छूट जाते हैं, जान-बूझकर उनका स्वरूपसे त्याग नहीं करना पड़ता। समर्पणका अर्थ उनका मनसे समर्पण ही है। फिर जब प्रेमकी उच्च दशा प्राप्त होती है तब विधि-निषेधके परे पहुँच जानेके कारण ये सब कर्म स्वतः ही उसे विधिके बन्धनसे मुक्त कर अलग जाते हैं। उस स्थितिका यही नियम है। परन्तु जो जान-बूझकर प्रेमके नामपर शास्त्रविधिका त्याग करता है, उसे भक्तिकी सिद्धि सहजमें नहीं होती। इसलिये सूत्रकार कहते हैं कि लोकव्यवहारका त्याग जान बूझकर मत करो। फलकी कामना छोड़कर कर्म करते रहो। निष्काम कर्म करनेवाला स्वयमेव ही लोकहानिकी चिन्तासे छूट जाता है और उसके वे भगवत्प्रीत्यर्थ निष्कामभावसे किये हुए लौकिक कर्म भक्तिकी प्राप्तिमें साधक बन जाते हैं।