62 वें सूत्रमें लोकव्यवहारका त्याग नहीं करनेकी आज्ञा दी गयी है, अतएव लोकव्यवहार तो करना चाहिये; परन्तु प्रेमपथके पथिकको लोकव्यवहारमें भी स्त्री, धन, नास्तिक और शत्रुके चरित्र श्रवणसे तो बचना ही चाहिये।
(1) जिसका मन स्त्रीकी चिन्तामें लग गया, वह भगवान्की चिन्ता किसी प्रकार नहीं कर सकता। स्त्रीकी चिन्तासे कामकी उत्पत्ति होती है और काम प्रेममार्गमें सबसे बड़ा बाधक है। स्त्रीसम्बन्धी बातोंके सुनने, पढ़ने और देखनेसे ही स्त्रीचिन्तन होता है। अतएव साधकको चाहिये कि स्त्रीसम्बन्धी बातचीत न करे, स्त्रीसम्बन्धी बात या गान न सुने, स्त्रीसम्बन्धी चित्र न देखे, स्त्रीसम्बन्धी पुस्तक या अन्य साहित्य न पढ़े, नाटक, सिनेमा आदि न देखे, स्त्रीचरित्रपर कुछ भी आलोचना न करे, स्त्रियोंके सम्बन्धमें लेखादि न लिखे, स्त्रियोंमें रहे नहीं और स्त्रियोंसे अनावश्यक मिले नहीं।
जो साधक गृहस्थ हों, उन्हें अपनी विवाहिता पत्नीके सिवा यथासाध्य अन्य स्त्रियोंसे मिलनेसे बचना चाहिये। स्त्रीसम्बन्धी चर्चा करना सुनना, चित्रादि देखना तो सभीके लिये हानिकारक है।
श्रीमद्भागवतमें तो कहा है ..
न तथास्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसंगतः ।
योषित्संगाद्यथा पुंसो यथा तत्संगिसंगतः ॥
(3।31।35)
'स्त्रियोंके संगसे और स्त्रियोंका संग करनेवालोंके संगसे मनुष्यको जैसा मोह और बन्धन प्राप्त होता है वैसा अन्य किसीके भी संगसे नहीं होता।'
आगे चलकर पंचम स्कन्धमें स्त्रियासक्त पुरुषोंकी संगतिको 'नरकका द्वार' बतलाया है। जैसे पुरुषोंके लिये स्त्रीका संग त्याज्य है, इसी प्रकार स्त्रियोंके लिये भी पुरुषोंका संग सर्वथा त्याज्य है।
(2) धनके चिन्तनसे लोभकी उत्पत्ति होती है। जहाँ चित्तमें धनका लोभ जागृत हुआ, वहीं न्यायान्यायकी बुद्धि मारी जाती है और मनुष्य सत्पथको त्यागकर अन्यायके मार्गपर चलने लगता है। अतएव धन और धनियोंकी भोग और गर्वभरी बातें नहीं सुननी देखनी चाहिये।
(3) जिनका ईश्वर और शास्त्रोंपर विश्वास नहीं है, वे ही नास्तिक हैं। ईश्वरका अस्तित्व न माननेवाले नास्तिकोंके समान जगत्के जीवोंका शत्रु शायद ही कोई है। इसमें क्या रखा है? उसमें क्या है? ईश्वर केवल ढोंग है, किसने ईश्वरको देखा है? आत्मा तो कल्पनामात्र है।' ऐसी बातें बकनेवाले और ईश्वर तथा शास्त्रोंकी निन्दा करनेवाले कुतर्कियों का संग करने तथा उनके चरित्र सुननेसे ईश्वरमें अश्रद्धा पैदा होती है और ईश्वरमें अश्रद्धाके समान पतनका साधन और कोई सा भी नहीं है। अतएव नास्तिकोंसे सदा बचना चाहिये ।
(4) वास्तवमें भक्तके मन उसका कोई भी शत्रु नहीं है। जो सब जगत् में अपने प्राणाराम परमात्माको व्याप्त देखता है, जो जगत्को श्रीकृष्णमय देखता है, वह कैसे किसको अपना वैरी मान सकता है।
देवदेव श्रीमहादेवजीने कहा है...
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥
परन्तु जबतक भक्तिकी सिद्धि न हो, तबतक साधकको ऐसी भावना करनी चाहिये और मन-ही-मन यह निश्चय करना चाहिये कि सब कुछ मेरे प्रभुका स्वरूप है। ऐसी अवस्थामें यदि कोई दूसरा मनुष्य भ्रमवश साधकसे द्वेष या वैर रखे तो उसकी उन वैरसम्बन्धी बातोंको, जहाँतक हो, सुनना ही नहीं चाहिये। क्योंकि उनके सुननेसे क्रोध उत्पन्न होनेकी सम्भावना रहती है। अतएव अपनी ओरसे तो अपने न जीते हुए मनके सिवा किसीको शत्रु माने ही नहीं और दूसरा कोई शत्रुता रखता हो तो उसपर भी विचार न करे। स्त्रीके चिन्तनसे काम, धनके चिन्तनसे लोभ, नास्तिकके चिन्तनसे ईश्वरमें अविश्वास और वैरीके चिन्तनसे क्रोध उत्पन्न होता है। अतएव इन चारोंके चरित्रोंको यथासाध्य सुनना ही नहीं चाहिये।