इससेके पहले सूत्रमें स्त्री, धन, नास्तिक, वैरीका चरित्र न सुननेका आदेश दिया गया है। परन्तु वैसा करके यह नहीं मान लेना चाहिये कि मैं कामिनी-कांचनका त्यागी हूँ, मैं परम आस्तिक हूँ, मैं अजातशत्रु हूँ। अभिमान सर्वथा पतनका हेतु है। सम्पत्ति, सन्तति, शक्ति, स्वास्थ्य, विद्या, बुद्धि, कुल, वर्ण, आश्रम, आचार, रूप, पद, पुरुषार्थ आदि किसी भी वस्तुका अभिमान नहीं होना चाहिये। जो कुछ सवस्तु या सद्गुण प्राप्त हों अथवा साधन ठीक चलता रहे तो उसमें भगवान् की कृपाको ही कारण समझना चाहिये। अभिमानसे बहुत बड़ी हानि होती है। अतएव अभिमानका सर्वथा त्याग करना चाहिये। यहाँतक कि निरभिमानताके अभिमानको भी छोड़ देना चाहिये। अभिमाननाशका एक उत्तम उपाय दीनता, विनय और नम्रता है।
नमन भक्तिसे भी अभिमानका नाश होता है। इसी प्रकार दम्भका भी त्याग करना चाहिये। अपनेमें जो गुण न हों, धनमानके लोभसे या स्वभावदोषसे उन गुणोंको दिखानेकी चेष्टा करना; बाहरसे धर्मात्मा, भक्त, त्यागी बननेका ढोंग करना दम्भ कहलाता है। दाम्भिक पुरुषका साधनपथ बहुत बुरी तरहसे रुक जाता है। वह ऊपरसे अपना कपटवेश बनाये रखनेमें ही अपनी समस्त विद्या, बुद्धि और क्रियाकुशलताको समाप्त कर देता है। निरभिमानता और सरलता ये दो भक्तिके साधनमें परम सहायकरूप हैं और अभिमान एवं दम्भ महान् बाधक ये दोनों आसुरी सम्पदाके गुण हैं। इनके साथ 'आदि' शब्द जोड़कर सूत्रकारने आसुरी सम्पदा के अन्यान्य दुर्गुणोंकी तरफ इशारा किया है। अतएव सभी आसुरी दुर्गुणोंका त्याग करना चाहिये।