View All Puran & Books

नारद भक्ति सूत्र (नारद भक्ति दर्शन)

Narad Bhakti Sutra (Narada Bhakti Sutra)

सूत्र 65 - Sutra 65

Previous Page 65 of 84 Next

तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥

65-सब आचार भगवान्‌के अर्पण कर चुकनेपर यदि काम, क्रोध, अभिमानादि हों तो उन्हें भी उस (भगवान्) -के प्रति ही करना चाहिये।

जब सब कुछ भगवान्‌के अर्पण कर दिया तो फिर काम, क्रोधादिका अर्पण दूसरे किसको किया जाय। प्रियतम भगवान् जैसे अपने प्रेमी भक्तके प्रेमके पात्र हैं, वैसे ही उसके काम, क्रोधादिके पात्र भी वही हैं। दूसरा तो कोई उसके मन है ही नहीं, तब इनका पात्र और कौन हो? इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान् के प्रेमी भक्तोंमें भी विषयी पुरुषों-जैसे ही काम, क्रोध, अभिमान रहते हैं। आसुरी सम्पदाके दुर्गुणस्वरूप काम, क्रोध, अभिमानादिके त्यागकी बात तो पहले ही कही जा चुकी है। फिर प्रेमी भक्त महात्माओंमें यह दूषित काम कहाँ । उनमें विषयासक्ति, हिंसा, द्वेष और क्रोध कहाँ । उन अमानियोंमें मानकी गन्ध भी कहाँ। इनका तो उनमें बीज ही नहीं है। अपने सुखकी जब कोई वासना ही नहीं, तब ये दोष कहाँसे आवें ?

उन भक्तोंके जीवनका उद्देश्य तो बस एक प्रियतमको सुखी करना ही है-'कृष्णसुखैक तात्पर्य गोपीभाववर्य ।' उनके चित्तमें जगत्का संस्कार ही नहीं है: वे तो लज्जा, घृणा, कुल, शील, मान, देह, गेह, भोग, मोक्ष सबकी सुधि भुलाकर केवल अपने प्रियतम भगवान्पर ही न्योछावर हो चुके हैं। अतएव जैसे ये भक्त स्वयं दिव्य भाववाले होते हैं, वैसे ही इनके काम, क्रोध, अभिमान भी दिव्य होते हैं। इसीलिये परम विरागी जीवन्मुक्त मुनियोंने इस प्रकारके भगवत् रंग- रँगीले प्रेमियोंकी ऐसी लीलाएँ गाने और सुननेमें अपनेको कृतार्थ माना है।

जिनका चित्त सब ओरसे हट गया है, एकमात्र भगवान् ही जिनकी कामनाकी वस्तु रह गये हैं, वे भक्त अपने उन भगवान्‌के दर्शनकी कामनाके वेगसे पीड़ित होकर रो रोकर पुकारते हैं...


हे देव हे दयित हे भुवनैकबन्धो
हे कृष्ण हे चपल हे करुणैकसिन्धो ।
हे नाथ हे रमण हे नयनाभिराम
हा हा कदा नु भवितासि पदं दृशोर्मे ॥


'हे देव ! हे प्रियतम ! हे विश्वके एकमात्र बन्धु ! हे हमारे मनोंको अपनी ओर बरबस खींचनेवाले! हे चपल! हे करुणाके एकमात्र सिन्धु ! हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम ! हा! हा! तुम कब हमारे दृष्टिगोचर होओगे ?'

श्रीकृष्णगत प्राणा श्री रुक्मिणी जी कहती हैं...

(श्रीमद्भा0 10 । 52 । 37, 38, 43) 'हे अच्युत ! हे त्रिभुवनसुन्दर! जो कानोंके द्वारा हृदयमें प्रवेश करके सुननेवालोंके अंगतापको हरण कर लेते हैं, वे आपके दिव्य गुण और जो नेत्रधारियोंकी दृष्टिका सबसे परम लाभ है वह आपका दिव्य रूप, इनकी प्रशंसा सुनकर मेरा चित्त सारी लोक-लाजको छोड़कर आपपर अत्यन्त आसक्त हो गया है। हे मुकुन्द ! कुल, शील, रूप, विद्या, वय, द्रव्य और प्रभावमें आपके समान बस आप ही हैं। हे पुरुषोत्तम! आप नरलोकके मनको मोहनेवाले हैं। हे पुरुषसिंह ! विवाहकाल (आपसे मिलनका अवसर) उपस्थित होनेपर ऐसी (कौन प्रेमी भक्तरूपी) कुलवती, गुणवती और बुद्धिमती कन्या है जो आपके साथ गठजोड़ी करनेकी इच्छा न करेगी ? हे कमललोचन! उमापति शंकरके समान महान् देव अपने हृदयका तम दूर करनेके लिये आपकी जिस चरणधूलिमें स्नान करनेकी प्रार्थना करते रहते हैं, यदि वह चरणधूलि मुझे प्रसादरूपमें नहीं मिली तो यह निश्चय समझिये कि मैं व्रतादिके द्वारा शरीरको सुखाकर इन व्याकुल प्राणोंको त्याग दूँगी और ऐसे करते-करते कभी सौ जन्मोंमें तो आपका प्रसाद मुझको प्राप्त होगा ही ।'

भगवान् श्रीकृष्णकी पटरानियाँ द्रौपदीसे कहती हैं...

न वयं साध्वि साम्राज्यं स्वाराज्यं भौज्यमप्युत ।
वैराज्यं पारमेष्ठ्यं च आनन्त्यं वा हरेः पदम् ॥
कामयामह एतस्य श्रीमत्पादरजः श्रियः ।
कुचकुंकुमगन्धाढ्यं मूर्ध्ना वोढुं गदाभृतः॥


(श्रीमद्भागवत 10 । 8341-42)

'हे साध्वी! हमें पृथ्वी के साम्राज्य, इन्द्रके राज्य, भौज्यपद, सिद्धियाँ, ब्रह्माके पद, मोक्ष या वैकुण्ठकी भी इच्छा नहीं है। हम तो केवल यही चाहती हैं कि भगवान् श्रीकृष्णकी कमलाकुच कुंकुमकी सुगन्धसे युक्त चरणधूलिकों ही सदा अपने मस्तकोंपर लगाती रहें।'

मुक्ति तो ऐसे भक्तोंके चरणोंपर लोटा करती है

यदि भवति मुकुन्दे भक्तिरानन्दसान्द्रा
विलुठति चरणाग्रे मोक्षसाम्राज्यलक्ष्मीः ॥


'जिसकी श्रीमुकुन्दके चरणोंमें परमानन्दरूपा भक्ति होती है, मोक्षसाम्राज्यश्री उसके चरणोंमें लोटती हैं।'

आदर्श प्रेममयी भक्तशिरोमणि गोपियाँ प्रियतम भगवान्‌के आँखोंसे ओझल हो जानेपर विलाप करती हुई कहती हैं...

(श्रीमद्भागवत 10 । 31।5-6, 13) 'हे यदुकुलशिरोमणि! जो लोग संसारके भयसे तुम्हारे चरणोंकी शरण लेते हैं, तुम्हारे करसरोज उन्हें अभय देकर उनकी अभिलाषाओंको पूर्ण करते हैं। हे प्रियतम! अपने उन्हीं करकमलोंको, जिनसे आपने लक्ष्मीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रखिये। हे व्रजवासियोंके दुःखोंको हरनेवाले वीर। आपकी मन्द मधुर मुसकान भक्तोंके गर्वको हरनेवाली है। है सखे! हम आपकी किंकरी हैं, कृपा करके हमें स्वीकार कीजिये और अपना सुन्दर मुखकमल हमें दिखाइये। हे रमण ! है आर्तिनाशन! तुम्हारे चरणारविन्द प्रणत जनोंकी कामना पूरी करनेवाले हैं, लक्ष्मीजीके द्वारा सदा सेवित हैं, पृथ्वीके आभूषण हैं, विपत्तिकालमें ध्यान करनेसे कल्याण करनेवाले हैं, हे प्रियतम ! उन परम कल्याणमय सुशीतल चरणोंको हमारे तप्त हृदयपर स्थापित कीजिये।'

इस प्रकार प्रेमी भक्त श्रीकृष्णके कामसे पीड़ित हुए सदा उन्हींके लिये रोया करते हैं और उन्हें पुकारा करते हैं; और आँखमिचौनीकी-सी लीला करनेवाले लीलाविहारी भगवान् जब उनकी प्रेम-पुकार सुनकर त्रिभुवन - कमनीय, योगिजनदुर्लभ, देवदेवप्रत्याशित, ऋषि महर्षि महापुरुषचित्ताकर्षक, निखिलसौन्दर्यमाधुर्य- रसामृतसारभूत, आनन्दकन्द मदनमोहन मन्मथमन्मथरूपमें मन्द-मन्द मुसकाते हुए और मुरलीमें अपना दिव्य मोहन सुर भरते हुए सहसा प्रकट होकर अपनी प्रेमानन्दरसमाधुरी चारों ओर बिखेर देते हैं, जब अपने सौन्दर्यमाधुर्यसुधासुशीतल वदनविधुकी शुभ्र ज्योत्स्ना चारों ओर छिटका देते हैं, तब वहाँ उन भाग्यवान् दिव्यचक्षु दिव्यभावापन्न भक्त महात्माओंके चित्तोंकी क्या अवस्था होती है, इसका वर्णन करनेकी शक्ति किसीमें भी नहीं है। यह अनिर्वचनीय रहस्य है।

उस समय भक्तका अपना सब कुछ उनके चरणोंमें स्वयमेव न्योछावर हो जाता है और वह आनन्दोल्लासमें मत्त होकर सारे जगत्की परवा छोड़कर पुकार उठता है-

घर तजौं, बन तजौं, नागर नगर तजौं,
वंसीबट-तट तजौं, काहूपै न लजिहौं ।
देह तजौं, गेह तजौं, नेह कहो कैसे तजौं,
आज राजकाज ऐसे सब ऐसे साज सजिहौं ॥
बावरो भयो है लोक बावरी कहत मोकौं,
बावरी कहेते मैं काहू काहू ना बरजिहौं ।
कहैया सुनैया तजौं, बाप और भैया तजौं,
दैया तजौं मैया! पै कन्हैया नाहिं तजिहौं ॥


जीना और मरना तुम्हारे ही लिये होगा और तुम्हारे ही चरणों में होगा। मेरे हृदयकी यही एकमात्र कामना है। जब सब कुछ न्योछावर हो गया तो फिर मरनेके बाद शरीरके ये पाँचों भूत अलग-अलग बिखरकर भी तुम्हारी ही सेवा करेंगे।

कहीं ये पंचभूत जब मुझे छोड़कर अलग हों तब प्रियतमकी सेवासे हट न जायँ, इसीलिये विह्वलचित्तसे भक्त विधातासे प्रार्थना करता है ...
पंचत्वं तनुरेतु भूतनिवहाः स्वांशे विशन्तु स्फुटं
धातारं प्रणिपत्य हन्त शिरसा तत्रापि याचे वरम् ।
तद्वापीषु पयस्तदीयमुकुरे ज्योतिस्तदीयांगन
व्योम्नि व्योम तदीयवर्त्मनि धरा तत्तालबृन्तेऽनिलः ॥

इसीका अनुवाद करते हुए एक कविने कहा है...

मरिबे डरौं न बिधिहिं बस, पंचभूत करि बास ।
पी- बापी, मारग, मुकुर, बीजन, अँगन अकास ॥

पाँचों तत्त्व तो अलग-अलग होंगे ही, हे प्रभो! आप इतना कर दीजिये कि जलका भाग उस कुएँमें जाकर मिल जाय जिसके जलको मेरे प्रियतम नहाने और पीनेके काममें लेते हों, अग्नितत्त्व उस दर्पणमें जा मिले जिसमें प्रियतम अपना मुख देखते हों, पृथ्वीतत्त्व उस मार्गमें मिल जाय जिस मार्गसे प्रियतम आते-जाते हों, वायुतत्त्व उस भाग्यवान् पंखेमें जा मिले जिससे प्रियतम हवा लेते हों और आकाशतत्त्व उस आँगनमें जाकर मिल जाय जिसमें प्रियतम बैठते हों।

और जीव? वह तो प्रभुके चरणोंसे कभी अलग हो ही नहीं सकता। उसको तो वे अपने हृदयमें ही छिपा रखेंगे ! यह है भक्तोंके 'काम' का एक छोटा-सा दृश्य! अब उनका क्रोध देखिये ।

एक दिन श्रीकृष्णकी किसी खिझानेवाली चालसे श्रीराधाजी खीझ गयीं, सखी समझाने लगीं तो वे क्रोधमें भरकर कहने लगीं- तू उनका नाम भी मेरे सामने मत ले; उनकी तो बात ही क्या है, मैं काले रंगकी चीजमात्रका त्याग कर दूँगी। जीवनभर उनके विरहतापसे जलती रहूँगी, परन्तु उनसे मिलूँगी नहीं।

मिलौं न तिनसों भूल, अब जौलौं जीवन जियौं ।
सहौं बिरहको सूल, बरु ताकी ज्वाला जरौँ ॥

मैं अब अपने मन यह ठानी।
उनके पंथ पिऊँ नहिं पानी ॥
कबहूँ नैन न अंजन लाऊँ ।
मृगमद भूलि न अंग चढ़ाऊँ ॥
सुनौं न स्त्रवननि अलि पिकबानी ।
नील जलज परसौ नहिं पानी ॥

जरा ध्यान देकर देखिये, इस खीझमें कितनी रीझ भरी है! एक दिन लीलामयने भक्त सखाओंके प्रणयकोपका आनन्द लूटनेके लिये खेलमें गड़बड़ मचाकर सखाओंको खिझा दिया। सखाओंने मिलकर निश्चय किया कि इस नटखटको खेलसे अलग कर दो। श्यामसुन्दरका वियोग तो क्षणभरके लिये भी सहनेको उनमेंसे एक भी तैयार नहीं था, क्योंकि उसे अलग करते ही प्राण अलग हो जाते हैं; परन्तु ऊपरसे बात गाँठकर उन्होंने कहा - 'कृष्ण ! तुम खुद ही गड़बड़ मचाते हो और फिर तनकर रूठ जाते हो; हटो यहाँसे, हम तुम्हें अपने साथ नहीं खेलने देंगे।' बस, जहाँ फटकार मिली कि प्राणधन श्यामसुन्दर ढीले पड़ गये। लगे पैरों पड़ने और शपथ खा खाकर क्षमा माँगने ।

सूरदासजीने गाया है...

खेलनमें को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रुसैयाँ ॥
जाति पाँति हमते बड़ नाहीं, ना हम बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत ताते, जाते अधिक तुम्हारे गैयाँ ।।
रूठ करे ता सँग को खेलै, हा हा खात परत तब पैयाँ ।
'सूरदास' प्रभु खेल्यो ही चाहैं, दाँव दियो करि नंद दुहैयाँ ॥

यह है उनका क्रोध ।

अब रही मानकी बात, सो दूषणरहित मान तो इस प्रेमाभक्तिका एक भूषण ही है। एक समय श्रीराधारानी रूठ गयीं, मान कर बैठीं और सखियोंसे बोलीं

सखि नँदलाल न आवन पावैं।

भीतर चरन धरन जिन दीजो, चाहे जिते ललचावैं ॥ ऐसनको बिस्वास कहा री कपट बैन बतियावैं। 'नारायन' इक मेरे भवन तजि अनत चहे जहँ जावैं ॥ भगवान् मनाते मनाते थक गये और शेषमें बोले इतो श्रम नाहिंन तबहुँ भयो ।

सुनु राधिका! जितो श्रम मोकौं ते यह मानु दयो । धरनीधर विधि बेद उधारो मधु सो सत्र हयो । द्विज नृप किए दुसह दुख मेटे, बलिको राज लयो ॥
तोर्यो धनुष सुयंबर कीनो, रावन अजित जयो । अघ बक बच्छ अरिष्ट केसि मथि दावानल अँचयो ॥ तिय बपु धर्यो असुर सुर मोहे, को जग जो न द्रयो । गुरुसुत मृतक ज्यायबे कारन सागर सोध लयो ॥ जानौं नाहिं कहा या रसमें सहजहि होत नयो । 'सूरस्याम' बल तोहि मनावत मोहि सब बिसरि गयो ।

धन्य तेरा मान ! बड़े-बड़े काम किये, कहीं हार नहीं मानी, कहीं थकावट नहीं प्रतीत हुई। आज तुझे मनानेमें मेरा सारा बल बिला गया। यह भक्तोंकी और भगवान्‌की प्रणय लीला है - इस लीलामें राग, काम, क्रोध, मान सभी हैं; परन्तु सभी दूसरे रूपमें हैं। सभी पवित्र प्रेमके नामान्तरमात्र हैं, यहाँका यह सर्वधर्मत्याग ही परम धर्म है । यहाँकी अविधि ही सर्वोपरि प्रेमकी विधि है।

यह तो हुई सिद्ध भक्तोंकी बात भक्तिके साधनमें भी यदि काम, क्रोध, लोभ कभी सतावें तो उनको भगवान्‌ के प्रति ही लगा देना चाहिये। जो बातें हमारे मार्गमें बाधक होती हैं, वे ही भगवान्‌के प्रति प्रयुक्त होनेपर साधक बन जाती हैं। यह निश्चय रखना चाहिये।

श्रीमद्भागवतमें परमहंसश्रेष्ठ श्रीशुकदेवजीके वचन हैं...

(10 । 29।15)

'काम, क्रोध, भय, स्नेह, तादात्म्य एवं मित्रता, सभी कुछ जो श्रीहरिके प्रति ही करते हैं वे अवश्य ही भगवान्‌के साथ तन्मय हो जाते हैं।'


तीव्र काम उसी वस्तुके लिये उत्पन्न होता है जो सबसे श्रेष्ठ हो, अखिल ऐश्वर्यमय हो, महान् माधुर्यसे पूर्ण हो, सर्वांगसुन्दर हो, आनन्दमय हो; भगवान्में यह सब कुछ है। यह सोचकर सदा-सर्वदा एकमात्र श्रीकृष्णमिलनकी कामनासे पीड़ित रहे और यह कामवासना उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाय । प्रेमभरा क्रोध इस प्रकार करे कि 'तुम बड़े निठुर हो, इतना पुकारनेपर भी नहीं आते; याद रखो अभी तो मैं पुकारता हूँ-पीछे तुम्हें पीछे-पीछे भटकना पड़ेगा।' आठों पहर चिन्तनमें लगे रहकर प्रेमभरा मान इस प्रकार करे कि 'मेरे पास तो अटूट चिन्तन-धन है, मैं तुम्हारी कोई गरज नहीं रखता; तुम्हें सौ बार गरज हो तो आना।' इत्यादि भगवान्‌के प्रति काम, क्रोध और अभिमान कैसे किया जा सकता है, इसका एक और सुन्दर उदाहरण मातृपरायण शिशु है। छोटे बच्चेको आप बहुमूल्य रत्न दीजिये, उसे बढ़िया-बढ़िया चीजें खानेको दीजिये, उसका खूब सम्मान कीजिये, उसका यश गाइये, उसे स्वर्ग-मोक्ष मिलनेकी बात कहिये, वह माता और मातृस्तनोंको छोड़कर और कुछ भी नहीं चाहता। चाहे क्या, वह और किसी वस्तुको जानता ही नहीं, उसके लिये जाननेकी और चाहनेकी एकमात्र वस्तु माँ है। माँके बदलेमें वह किसी वस्तुसे भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। इसी प्रकार भक्तकी कामना केवल भगवान्‌के लिये ही होनी चाहिये। एकमात्र भगवान् ही उसके काम्य होने चाहिये।

बच्चा कुछ बड़ा हुआ; इधर-उधर कुछ चलने लगा, चलते चलते ठोकर खाकर गिर पड़ा, रोने लगा। बच्चेका रोना सुनकर माँ दौड़ी आयी। बच्चा खीझ गया; पड़ा स्वयं, परन्तु क्रोध उसका मातापर हुआ। वह अपनी तोतली बोलीमें बार-बार कहता है, तू मुझे अकेला छोड़ क्यों गयी ? फिर अभिमान करके रूठ जाता है। कहता है, 'जा मैं तुझसे नहीं बोलूँगा। तेरी गोदी नहीं आऊँगा।' 'मनाती है, गोद लेना चाहती है, स्तन पिलाना चाहती है, वह रोता हुआ आगे-आगे भागता है। वह ऐसा क्यों करता है, इसीलिये कि वह स्वाभाविक ही मातापर अपना अधिकार समझता है। माताको ही अपनी सब कुछ समझता है। वह भूखा रहे तो माँका दोष, वह गिर जाय तो माँका अपराध, वह सो न सके तो माताका अपराध और अपराधका दण्ड खीझना और रूठना-क्रोध और अभिमान! इसी प्रकार निर्भर भक्त भी अपने भगवान्‌के प्रति काम, क्रोध और अभिमानादि कर सकता है।

Previous Page 65 of 84 Next

नारद भक्ति सूत्र
Index


  1. [सूत्र 1]अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ 1 ॥
  2. [सूत्र 2]सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ॥ 2 ॥
  3. [सूत्र 3]अमृतस्वरूपा च ॥ 3 ॥
  4. [सूत्र 4]यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ॥ 4 ॥
  5. [सूत्र 5]यत्प्राप्य न किंचिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ॥ 5 ॥
  6. [सूत्र 6]यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति ॥ 6 ॥
  7. [सूत्र 7]सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात् ॥ 7 ॥
  8. [सूत्र 8]निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ॥ 8 ॥
  9. [सूत्र 9]तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥ 9 ॥
  10. [सूत्र 10]अन्याश्रयाणां त्यागो ऽनन्यता ॥ 10 ॥
  11. [सूत्र 11]लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ॥ 11 ॥
  12. [सूत्र 12]भवतु निश्चयदादयदूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ॥ 12॥
  13. [सूत्र 13]अन्यथा पातित्याशंकया ॥ 13 ॥
  14. [सूत्र 14]लोकोऽपि तावदेव किन्तु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीर धारणावधि ॥ 14 ॥
  15. [सूत्र 15]तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् ॥ 15 ॥
  16. [सूत्र 16]पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः ॥ 16 ॥
  17. [सूत्र 17]कथादिष्विति गर्गः ॥ 17 ॥
  18. [सूत्र 18]आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः ॥ 18 ॥
  19. [सूत्र 19]नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारिता परमव्याकुलतेति ॥ 19 ॥
  20. [सूत्र 20]अस्त्येवमेवम् ॥ 20 ॥
  21. [सूत्र 21]यथा व्रजगोपिकानाम् ॥ 21 ॥
  22. [सूत्र 22]तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः ॥ 22 ॥
  23. [सूत्र 23]तद्विहीनं जाराणामिव ॥ 23 ॥
  24. [सूत्र 24]नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम् ॥ 24 ॥
  25. [सूत्र 25]सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा ॥ 25 ॥
  26. [सूत्र 26]फलरूपत्वात् ॥ 26 ॥
  27. [सूत्र 27]ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ॥ 27 ॥
  28. [सूत्र 28]तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके ॥ 28 ॥
  29. [सूत्र 29]अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये ॥ 29 ॥
  30. [सूत्र 30]स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः ॥ 30 ॥
  31. [सूत्र 31]राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात् ॥ 31 ॥
  32. [सूत्र 32]न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा ॥ 32 ॥
  33. [सूत्र 33]तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ 33 ॥
  34. [सूत्र 34]तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः ॥ 34 ॥
  35. [सूत्र 35]तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च ॥ 35 ॥
  36. [सूत्र 36]अव्यावृतभजनात् ॥ 36 ॥
  37. [सूत्र 37]लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात् ॥ 37 ॥
  38. [सूत्र 38]मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा ॥ 38 ॥
  39. [सूत्र 39]महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च ॥ 39 ॥
  40. [सूत्र 40]लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव ॥ 40 ॥
  41. [सूत्र 41]तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ॥ 41 ॥
  42. [सूत्र 42]तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् ॥ 42 ॥
  43. [सूत्र 43]दुःसंगः सर्वथैव त्याज्यः ॥ 43 ॥
  44. [सूत्र 44]कामक्रोधमोह स्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश सर्वनाश कारणत्वात् ॥ 44 ॥
  45. [सूत्र 45]तरंगायिता अपीमे संगात्समुद्रायन्ति ॥ 45 ॥
  46. [सूत्र 46]कस्तरति कस्तरति मायाम्, यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ॥ 46 ॥
  47. [सूत्र 47]यो विविक्तस्थानं सेवते, यो लोकबन्धमुन्मूलयति, निस्त्रैगुण्यो भवति, योगक्षेमं त्यजति ॥ 47 ॥
  48. [सूत्र 48]यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति ततो निर्द्वन्द्वो भवति ॥ 48 ॥
  49. [सूत्र 49]वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ 49 ॥
  50. [सूत्र 50]स तरति स तरति स लोकांस्तारयति ॥ 50॥
  51. [सूत्र 51]अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥ 51 ॥
  52. [सूत्र 52]मूकास्वादनवत् ॥ 52 ॥
  53. [सूत्र 53]प्रकाशते * क्वापि पात्रे ॥ 53 ॥
  54. [सूत्र 54]गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ॥ 54 ॥
  55. [सूत्र 55]तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव भाषयति * तदेव चिन्तयति ॥ 55 ॥
  56. [सूत्र 56]गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा ॥ 56 ॥
  57. [सूत्र 57]उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ 57 ॥
  58. [सूत्र 58]अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ 58 ॥
  59. [सूत्र 59]प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् ॥ 59॥
  60. [सूत्र 60]शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ॥ 60 ॥
  61. [सूत्र 61]लोकानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ॥ 61 ॥
  62. [सूत्र 62]न तदसिद्धौर लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत् साधनं च कार्यमेव ॥ 62 ॥
  63. [सूत्र 63]स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ॥ 63 ॥
  64. [सूत्र 64]अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ॥ 64 ॥
  65. [सूत्र 65]तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥ 65 ॥
  66. [सूत्र 66]त्रिरूपभंगपूर्वकं नित्यदासनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम् ॥ 66
  67. [सूत्र 67]भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ 67 ॥
  68. [सूत्र 68]कण्ठावरोधरोमांचाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च ॥ 68 ॥
  69. [सूत्र 69]तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि ॥ 69 ॥
  70. [सूत्र 70]तन्मयाः ॥ 70 ॥
  71. [सूत्र 71]मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवति ॥ 71 ॥
  72. [सूत्र 72]नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ॥ 72 ॥
  73. [सूत्र 73]यतस्तदीयाः ॥ 73 ॥
  74. [सूत्र 74]वादो नावलम्ब्यः ॥ 74 ॥
  75. [सूत्र 75]बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥ 75 ॥
  76. [सूत्र 76]भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ॥ 76 ॥
  77. [सूत्र 77]सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपिव्यर्थं न नेयम् ॥ 77 ॥
  78. [सूत्र 78]अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारित्र्याणि परिपाल नीयानि ॥ 78 ॥
  79. [सूत्र 79]सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ॥ 79 ॥
  80. [सूत्र 80]स कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ॥ 80 ॥
  81. [सूत्र 81]त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी, भक्तिरेव गरीयसी ॥ 81 ॥
  82. [सूत्र 82]गुणमाहात्म्यासक्ति रूपासक्ति पूजासक्ति स्मरणासक्ति दास्यासक्ति सख्यासक्ति वात्सल्यसक्ति कान्तासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति तन्मयतासक्ति परमविरहासक्ति रूपाएकधा अपि एकादशधा भवति ॥ 82 ॥
  83. [सूत्र 83]इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भयाः एकमताः कुमार व्यास शुक शाण्डिल्य गर्ग विष्णु कौण्डिण्य शेषोद्धवारुणि बलि हनुमद् विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ 83॥
  84. [सूत्र 84]य इदं नारदप्रोक्तं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धत्ते स प्रेष्ठं लभते स प्रेष्ठं लभत इति ॥ 84 ॥