स्वामी, सेवक और सेवा; अथवा पति, पत्नी और पतिसेवा इन तीन-तीन रूपोंको मिटाकर नित्य दास्यभक्तिके द्वारा अथवा कान्ताभक्तिके द्वारा भगवान् से प्रेम ही करना चाहिये। दास्यभाव और कान्ताभाव इन दोनोंमें ही आगे चलकर भगवान् के साथ तन्मयता हो जाती है। निष्कामभावसे शरीर, मन, वाणी, सब कुछ स्वामीके अर्पण कर एक अपने स्वामीको छोड़कर जगत्में दूसरे किसीको भी न जानना - यह दास्यभक्तिका आदर्श है। और पति ही मेरा तन, मन, धन, गति, मति, आश्रय, जीवन, प्राण, धर्म, मोक्ष और भगवान् है; एक पतिके सिवा अन्य कोई पुरुष ही जगत्में नहीं है; पतिका धन मेरा धन, पतिका तन मेरा तन, पतिका मन मेरा मन, पतिकी सेवा मेरी सेवा, पतिका ऐश्वर्य मेरा ऐश्वर्य, पतिका मान मेरा मान, पतिका अपमान मेरा अपमान, पतिके प्राण मेरे प्राण – इस प्रकार एकमात्र पतिपरायणा पतिगत-प्राणा होकर निष्काम अनन्यभावसे निरन्तर सेवामें लगे रहना, यह कान्ताभक्तिका आदर्श है। वास्तवमें दोनों एक ही हैं। दोनोंमें ही समता है। दोनोंमें ही अभिन्नता है। दास्यभक्तिमें भी सेवक अपना सब कुछ भुलाकर स्वामीके नाम गोत्रवाला बन जाता है और कान्ताभक्तिमें तो अपने नाम गोत्रको पतिके नाम गोत्रमें मिलानेपर ही कान्ताभावकी प्राप्ति होती है।
दास्यभावके सम्बन्धमें श्रीगोसाईंजी महाराज कहते हैं...
मेरे जातिपाँति न चहौं काहूकी जातिपाँति,
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको ।
लोक परलोक रघुनाथहीके हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसीके एक नामको ॥
अति ही अयाने उपखाने नहीं बूझैं लोग,
साहहीको गोत गोत होत है गुलामको ।
साधु कै असाधु, कै भलो के पोच, सोच कहा,
का काहूके द्वार परौं जो हौं सो हौं रामको ॥
स्वामी और सेवकका कुल-गोत्र एक हो गया। इस दास्यभावकी महिमा गाती हुई भगवती श्रीराधिकाजी भक्तवर उद्धवजीसे कहती हैं..
(ब्रह्मवैवर्त0 कृ0 97।8-9)
'सब वरोंमें श्रेष्ठतम वर श्रीकृष्णभक्ति या श्रीकृष्णदास्य ही है। पाँच प्रकारकी श्रेष्ठ मुक्तियोंसे हरिभक्ति ही श्रेष्ठ एवं गुरुतर है।ब्रह्मत्व, देवत्व, अमरत्व, अमृतप्राप्ति, सिद्धिलाभ - इन सभी से श्रीहरिका दासत्व प्राप्त होना सुदुर्लभ है।'
कान्ताभक्तिमें तो एकात्मता है ही है।
प्रीति जो मेरे पीवकी, बैठी पिंजर माहिं
रोम रोम पिउ पिउ करै, 'दादू' दूसर नाहिं ॥
प्रीतमको पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस।
तनमें, मनमें, नैनमें, ताको कहा सँदेस ॥
कान्ता और कान्त तो घुल-मिलकर एक हो जाते हैं-अतएव वहाँ त्रिरूपका भंग आप ही हो जाता है। सूत्रकार कहते हैं, इस एकात्मताके आदर्शको सामने रखकर, इस भावको मनमें स्थान देकर दास्यभाव या कान्ताभावसे भगवान्के प्रति केवल प्रेम ही करो।