अनन्य भक्तगण जब इकट्ठे होकर अपने प्राणस्वरूप प्रियतमकी चर्चा करते हैं तो उनका प्रेमसागर उमड़ पड़ता है। तब वे चेष्टा करनेपर भी नहीं बोल सकते; उनके कण्ठ रुक जाते हैं, शरीर पुलकित हो जाता है, रोम-रोमसे प्रेमकी किरणधाराएँ निकलकर उस स्थानमें निर्मल प्रेमज्योति फैला देती हैं । वहाँका वातावरण अत्यन्त विशुद्ध और प्रेममय हो जाता है। उस समय वे भक्तगण प्रेमविह्वल होकर आँखोंसे प्रेमके आँसुओंकी धारा बहाते हुए परमानन्दमें मग्न हो जाते हैं। यह स्थिति बहुत ही दुर्लभ और परम पवित्र होती है, जिन भाग्यवानोंको यह अवस्था प्राप्त हो जाती है, उन सबके कुल तो पवित्र होते ही हैं सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत । श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥ - वरं उनके अस्तित्वसे पृथ्वी भी पवित्र हो जाती है। उस समय उन पवित्र प्रेमस्वरूप भक्तके तनसे स्पर्श की हुई जरा-सी हवा जिसके शरीरको स्पर्श कर लेती है, वह भी पवित्र हो जाता
है।
शास्त्रमें कहा है...
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मि
ल्लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ॥
'जिसका चित्त अपार संवित् एवं सुखके सागर परब्रह्ममें लीन हो गया है, उसके जन्मसे कुल पवित्र, जननी कृतार्थ और पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है।'
श्रीमद्भागवतमें भगवान् कहते हैं ...
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
'प्रेमके प्रकट हो जानेसे जिसकी वाणी गद्गद और चित्त द्रवीभूत हो जाता है, जो प्रेमावेशमें बार-बार रोता है, कभी हँसता है, कभी लाज छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने और नाचने लगता है। ऐसा मेरा परम भक्त त्रिलोकीको पवित्र कर देता है।'